Monday 10 October 2016

चण्डीगढ़ से चमकौर साहिब यात्रा भाग-1

कि ओ बेनगूँ असत ओ बे चगूँ
कि ओ रहनुमा असत ओ रहनमूँ

(वो निराकार है
वो रहनुमा है जो रास्ता दिखाता है; ज़फरनामा)

वही जो विद्यमान है सब में
वही जो जीवन देने वाला है
है वही प्राण हरने वाला भी
वही साक्षी है सत्य का
है असत्य रचने वाला भी
वही ले चलता है दुनिया दिखाने
है वो थकाने वाला भी
वही दिखाता है राह
है वही भटकाने वाला भी
मैंने रखा भरोसा अपने रहनुमा कि हर बात मानी
है आज ले चला मुझे वो बाहर से अंदर की ओर
क्या पता दिख जाए मुझे वो पर्म सत्य की ठौर........

देह शिवा वर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं,
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों

(हे भगवान मुझे यही वर दो की मैं कभी शुभ काम करने से मुँह न फेरूँ
मैं शत्रु का सामना करने से कभी न डरूँ और निश्चय करके अपनी जीत करूँ
तुम्हारी महिमा ही मेरा मार्गदर्शन करे और उसका गुणगान ही मेरा पर्म उद्देश्य हो
जब मरने का समय आये तो मैं रणभूमि में साहस से लड़ता हुआ वीरगति प्राप्त करूँ)
(चण्डी चरित्र उक्ति विलास-श्लोक 231, गुरुगोबिन्द सिंह, दशम ग्रन्थ)


दिसम्बर 1704 चमकौर में एक कच्चे किले में गुरु गोबिंद सिंह, पंज (पाँच) प्यारे, दो साहिबजादे (बाबा अजीत सिंह जी , साहिबजादे जुझार सिंह जी और 40 सिख  फैसला कर चुके हैं कि अब हम मुग़लों से लड़ाई करेंगे | पिछले कल जो लोग कुरान और गीता की कसमें खा कर भी विश्वासघात कर गए उन पर अब भरोसा भी कैसे करते ?
कल रात बर्फीली ठंडी सरसा नदी के किनारे मुग़लों (वज़ीर खान) तथा पहाड़ी राजाओं ने मिल के हमला किया जो पहले ही यह संधि कर चुके थे कि आनंदपुर साहिब से पलायन करते सिखों को कोई हानि नहीं पहुंचाएंगे | सरसा नदी को पार करते हुए, गुरु गोबिंद सिंह जी अपनी माता और दोनों छोटे साहिबजादों से बिछड़ गए जो बाद में एक और विश्वासघात के बाद फतेहगढ़ में मुग़लों द्वारा बंदी बना लिए गए | उसी नदी में गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा रचित बहुत सारा साहित्य भी बह गया |

अरे भाई साहब अभी मिन्नी मैराथन दौड़ के आये हो अभी साइकिल उठा कहाँ चल दिए ?
जी चमकौर साहिब जा रहा हूँ, फतेहगढ़ साहिब देखने के बाद बड़ा मन था वहां जाने का, आज सुबह दौड़ के थक तो चुका हूँ सोचता हूँ अच्छी तरह थक लूँ फिर एक साथ विश्राम करूँगा |
8 अक्टूबर सुबह करीब 9:30 बज रहे थे | सवेरे 5 बजे ही उठ गया था फिर 6 बजे मैराथन दौड़ने चला गया | 8 बजे वापिस आ के नाश्ता किया और वहीँ खाते-खाते चमकौर साहिब जाने का इरादा बना लिया | अब साइकिल पे सवार हो चुका हूँ और सोच रहा हूँ उस दिसम्बर 1704 की सर्द रात के बारे में जिसमें गुरु गोबिंद सिंह जी ने सरसा नदी पार की थी  क्या वे लोग भी थके थे नदी को पार करते हुए ?

चमकौर के मिट्टी के किले के बाहर मुग़ल फ़ौज घेरा बंदी कर चुकी है | एक तरफ 48 हैं और दूसरी तरफ 10 लाख की फ़ौज ! 

किले के अंदर से गुरु की आज्ञा पा पाँच-पाँच के जत्थे में सिंह मुग़लों से लोहा लेने लगे | 

ज़ज़्बा-ए-सिंह देखते ही बनता होगा
वो गुरु का सिख जब शस्त्र लिए किले से निकलता होगा 
खैर जान की मुग़ल तब मांगता होगा 
जब एक सिंह एक वार से दो 
और दो वार से चार
टुकड़े जो उनके करता होगा  
एक सिंह जब सवा लाख पे भारी पड़ता होगा
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 

आकाश सत श्री अकाल के जैकारों से फट पड़ता होगा
एक सिंह वीरगति को जब प्राप्त करता होगा 
एक के जाते ही दूसरा सिंह जब मैदान-ए-जंग में उतरता होगा 
तब कलेजा भय से मुग़लों का थर-थर करता होगा 
वो तलवार से मुग़ल फ़ौज को काटता हुआ 
जब आगे जो बढ़ता होगा 
तब वो दृश्य-ए-जंग देखते ही बनता होगा 
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 

तपते सूरज का मज़ा लेते हुए मैं चण्डीगढ़ से मुलांपुर होते हुए कुराली रोड पर पहुँच गया | आज दौड़ लगाने के कारण गला कुछ ज्यादा ही सूख रहा था | खैर मैं तो यह सोच रहा था कि जब 10 लाख कि फौज़ का सामना 48 सिख कर रहे थे तो क्या उनका गला भी सूखा होगा ?


निःसंदेह नहीं, नहीं सूखा होगा | जहाँ गुरु गोबिंद सिंह जैसे संचालक खड़े हों वहां खौफ तो सिर्फ शत्रु ही खा सकता है !
” चिड़ियों से मैं बाज़ लडाऊ, गीदड़ों  को  मैं  शेर  बनाऊ
सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ,”

कुराली से रोपड़ कि तरफ हो गया | कुराली फ्लाईओवर पे बहुत ट्रैफिक थी | बचते-बचाते फ्लाईओवर के पार पहुँचा | किले से निकले घोड़े पे सवार हुए सिंह भी मुग़लों कि फौज़ को तलवारों से काटते हुए उनके पार निकल जाते होंगे और घोड़े को पुनः मोड़ कर फिर से उनके बीच जा वीरता से लड़ते होंगे | 
रोपड़ पुलिस लाइन्स वाली ट्रैफिक लाइटों से चमकौर साहिब के लिए बाहिनी ओर मुड़ गया | कुछ दूर आगे रसूलपुर से फिर बायीं ओर मुड़ गया ओर नीलों-रोपड़ कैनाल रोड पे चलने लगा | अब रास्ता सीधा है |

आज्ञा दो पिता जी अब मैं रण में जाऊं 
आज मौका शुभ है 
मैं सिखि का मान बढाऊँ  
लिया लगा गले से 
ओर दिया शस्त्र पकड़ा 
एक वार में दो टुकड़े ओर दो में करते चार 
देख मुग़ल सेना में मचा भीषण हाहाकार 
घेर लिया है सिंह को 
डाल घेरा चारों ओर
आओ पास मेरे 
पकड़ो साहस कि डोर 
ललकारता है बाबा अजित सिंह 
करके गर्जन घनघोर


भेड़ों से कभी सिंह का शिकार होता नहीं   
मुग़ल सेना से भी वैसे ही वार होता नहीं
कायरता से ही तीरों से 
हुआ सिंह शहीद 
ललकार के बाद भी
आया न कोई मुग़ल करीब 
देख शहीदी बेटे कि 
लगाया सत श्री अकाल का जयकारा
गूंजा गर्जन से है 
सकल जहान सारा 

सुन शहादत बड़े भाई कि 
बाबा जुझार आया 
मुझे आज्ञा दो पिता जी  
धर्म ने है अब मुझे बुलाया 
रण मैं लड़ा बाबा जुझार यूँ 
बन बाबा अजीत का अवतार 
फ़र्क दोनों मैं क्या 
रही न मुग़ल सेना पहचान 


जौहर रण विद्या का ऐसा है दिखलाया 
बौखलाई मुग़ल सेना बोली 
लौट बाबा अजीत आया 

शहीद हुआ जब सिंह वो 
छाती से बरछा आर-पार 
घायल होते हुए भी 
20 और गया वो मार    

सिख ने मुंह नहीं फेरा
जब भी धर्म ने है पुकारा  
महान गुरु गोबिंद सिंह सा  
हुआ सरवंशदानी न कोई दोबारा

गुरुद्वारा श्री कतलगढ़ साहिब के सामने साइकिल लगा दी | ये गुरुद्वारा उसी जगह बना है जहाँ बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह जी मुग़लों से लडे थे |


बाबा जुझार सिंह जी कि शहादत के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए | रात घिर आयी थी | "आप पत्थर को भी सिंह बना सकते हैं हमें आपके जैसा गुरु नहीं मिलेगा", ये कहते हुए पाँच प्यारों ने गुरु को रण में जाने नहीं दिया | उन्हों ने गुरु गोबिंद सिंह जी को किले से चले जाने के लिए कहा ताकि वह फिर से फौज़ तैयार कर सकें | गुरु गोबिंद सिंह जी ने चुपचाप जाना ठीक नहीं समझा | उन्हों ने शंख बजाया और एक ऊँचे स्थान पे चढ़ कर तीन बार ताली बजाई और कहा: पीर-ए-हिन्द रहावत (हिन्द का पीर जा रहा है )| 


लगभग 12:30 तक मैं चमकौर साहिब में अपनी हाज़िरी लगा चुका था |यहाँ का कण-कण वीरता का साक्षी है और गुरूद्वारे में लगे चित्र व अस्त्र-शस्त्र देख कर मन गदगद हो उठता है और आँखें नम हो जाती हैं |
धन्य हो ये धरती 
धन्य हो वो पिता 
धन्य हो वो माता 
जिनके बेटे पीढ़ियों को जीना सीखा गए........    

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छाडे खेत 
(संत श्री कबीर दास जी, गुरु ग्रन्थ साहिब)

(वही शूरवीर है जो धर्म के लिए लड़ता है 
अपना अंग-अंग कट जाने पर भी वह मैदान नहीं छोड़ता ) 

अगले भाग में पढ़िए गुरु गोबिंद सिंह जी का मुग़लों को जवाब 
और चमकौर साहिब से चण्डीगढ़ का सफ़र.....................

इस यात्रा का अगला भाग यहाँ पढ़ें




6 comments:

  1. संभवतः आज तक की सबसे रोचक कहानी,अगले भाग के लिए अत्यंत व्याकुल हूँ और जो चित्रकला की एक नयी प्रतिभा दिखाई है वो भी अतिविशिष्ट लग रही है।
    अच्छा काम करते रहिए और गौरवशाली अतीत को अपनी कथाओं के माध्यम से दर्शाते रहिये।

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    1. शुभम जी बहुत-बहुत शुक्रिया |

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  2. Once again a nice post 👍

    हालाँकि, यह भी सत्य है कि बहुत से पाठक इन सभी पोस्ट्स को उस तरह से न पाएं, जिस शैली में आज लगभग सभी यात्रा संस्मरण लिखे जा रहे हैं!
    पर यदि भीड़ से अलग अपना मुकाम बनाना है तो कुछ अलग तरह से लिखना भी जरुरी है। मुझे तो आपकी यात्राएं और लेखन शैली दोनों ही पसन्द आ रही हैं।

    All the best 💐

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    1. श्रीमान पाहवा जी उत्साह वर्द्धन के लिए धन्यवाद |
      मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगा ऐसे ही लिखते रहने की......

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  3. Once again a nice post 👍

    हालाँकि, यह भी सत्य है कि बहुत से पाठक इन सभी पोस्ट्स को उस तरह से न पाएं, जिस शैली में आज लगभग सभी यात्रा संस्मरण लिखे जा रहे हैं!
    पर यदि भीड़ से अलग अपना मुकाम बनाना है तो कुछ अलग तरह से लिखना भी जरुरी है। मुझे तो आपकी यात्राएं और लेखन शैली दोनों ही पसन्द आ रही हैं।

    All the best 💐

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