Saturday 24 September 2016

चण्डीगढ़ टू कसौली साइकिल यात्रा भाग-2

बुरी ओ कलजुगे दी रुत आयी 
लोकां बेची अखीं दी शर्म पाई 
सभ्यता, संस्कारां दा तां दाह-संस्कार होइ गया
कुड़िया-मुन्डुए की पुलिया पर सच्चा प्यार होइ गया
पेआ था जड़ा सियार हुण रंगोई के आया बहार पाई
बुरी ओ कलजुगे दी रुत आयी
बुरी ओ कलजुगे दी रुत आयी 
    
आजकले दे प्यारे दा बी इतबार न कोई
जलिया था फुलमो दी लोथा कन्ने
से रांझू यार न कोई 
यारी असां भी नी कचयां ने लायी 
बुरी ओ कलजुगे दी रुत आयी
बुरी ओ कलजुगे दी रुत आयी 

बुरा कलयुग का समय आया 
लोगों की आँखों से शर्म चली गई 
सभ्यता संस्कारों का समय गया
सड़क किनारे पुलिया पे सच्चे प्रेम की घटना घट गई 
गिरा हुआ सियार अब रंगा हुआ बाहर है आया  
(जो सियार पंचतंत्र में रंगरेज़ के रंग में गिर गया था वह अब बाहर आ गया है | ऐसा ही रंग चढ़ चुका है पश्चमी जगत का हमारे ऊपर)
बुरा कलयुग का समय आया
बुरा कलयुग का समय आया

आजकल के प्यार का इतबार न कोई 
जो फुलमो की चिता के साथ जल गया था 
वह रांझू यार न कोई 
(फुलमो रांझू हिमाचल की प्रसिद्ध लोक कथा के पात्र हैं )
यारी तो वही सच्ची जिसने ख़ुदा को हो पाया
बुरा कलयुग का समय आया
बुरा कलयुग का समय आया
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17 सितम्बर को करीब 12 बजे मैं कसौली पहुँचा | कसौली से मनकी पॉइंट कि तरफ जाते हुए सड़क किनारे पहाड़ी पे उगे फूलों ने स्वतः ही मेरा ध्यान खींच लिया | साइकिल सड़क किनारे टिका, मैं फूलों की तसवीरें लेने पहाड़ी पे चढ़ गया |



तसवीरें खींचते हुए जलन का एहसास हुआ और मैं समझ गया कि 

पहाड़ी पे केवल फूल ही नहीं बिच्छू बूटी भी है | खैर बिच्छू बूटी का ईलाज़ उसी के साथ उगे पालक 
कि तरह दिखने वाले पत्ते के रस से होता है, यह मैं जानता था | कुछ पत्ते पत्थर पे घिस के उनका रस निचोड़ के लगाते ही आराम मिल गया | बिच्छू बूटी हिमालय में सभी जगह पाई जाती है | आप अगर कसौली, शिमला घूमने निकलें तो हमेशा फुल पेंट पहने, मैं मूर्ख था जो निक्कर में ही चला आया था |


थोड़ी आगे जाने पे मनकी पॉइंट से लौटते हुए सैलानियों से बात हुई | जब मुझे पता चला कि मनकी पॉइंट पहुँचने के लिए 500 सीढ़ियां चढ़नी पड़ेंगी तो मैंने वहां जाने का विचार त्याग दिया | मन में ही बजरंग बली जी से क्षमा मांग मैं वापस जाने के बारे में सोचने लगा | कहते हैं कि मनकी पॉइंट शिमला से सिर्फ 3 फुट ऊँचा है और यहाँ से चंडीगढ़ साफ़ दिखता है | खैर मैं वहां नहीं गया तो तथ्य कि पुष्टि अगली बार जा के करूँगा |
वापसी का सफर लगभग 1:30 बजे शुरू किया | कसौली से गढ़खल और वहां से धर्मपुर वाले रास्ते पे हो लिया |


सुबह से बस सेब केले ही खाये थे और शरीर खाना माँग रहा था | कुछ दूर सड़क कि दूसरी तरफ मुझे भुट्टे बेचता हुआ आदमी दिखा | उसकी काम चलाऊ दूकान के सामने साइकिल लेटा दी और एक पत्थर पर बैठ गया | बातचीत करने पर पता चला कि वो नेपाल से आया हुआ प्रवासी मज़दूर है और वीकएण्ड पे भुट्टे बेचता है |




राजू भाई चंडीगढ़ चलोगे ?
ना भाईसाहब ना, वहां मेरे लायक कोई काम नहीं, मुझे तो बस खेती आती है |

उसके इस जवाब के आगे मैं बेबस था | वाकई किसानी में अब रखा ही क्या है ? ज़मीन बेच के विदेश जाओ, वहां टैक्सी चलाओ या अंग्रेजों के घरों में पोछा मारो | उसी में असली सकून है और पंजाब में तो यही लेटेस्ट फैशन है ! मुझे कुछ जवाब नहीं सुझा तो मैं चुप चाप भुट्टा खाने लगा |


राजू जी को अलविदा कह मैं सनावर होता हुआ धर्मपुर पहुँचा |
धर्मपुर से दायीं ओर शिमला-चंडीगढ़ हाईवे पे चलने लगा | कसौली से धर्मपुर तक उतराई का मज़ा लेते हुए, आराम से पहुँच गया |



 धर्मपुर से ट्रैफिक बढ़ गयी और मैं बिलकुल बायीं ओर चलने लगा | उतराई अब भी थी लेकिन बीच-बीच में सड़क निर्माण कार्य चालू होने के कारण धूल बहुत थी |



आज तो कुछ और ही मंज़ूर था नियति को | मेरे आगे चल रहा ट्रक अचानक से अनियंत्रित होकर पलट गया और मेरे पीछे चल रहा ट्रक मेरे बिलकुल साथ से निकलता हुआ थोड़ी दूरी पे रुक गया | बौखलाहट में मैं भी गिर गया | होश सँभालने के बाद पता चला कि सामने से आ रही कार मोड़ पे गलत तरीके से ओवरटेक कर के निकल गई और उसे बचाने के चक्कर में ट्रक पलट गया और ट्रक में लदे सेब खाई में गिर गए | | खैर सब ठीक थे | भगवान् का शुक्रिया कर मैं भी चल पड़ा |


भरी पड़ी है सड़क मूर्खों से 
जो पढ़े-लिखे हैं 
और हैं बहुत जल्दी में 
ऊँचे गाने लगा के चलते हैं 
और डूबे रहते हैं नशे की मस्ती में
पकडे जाने पे वो अंग्रेज़ी बोलतें हैं 
और काट देते हैं पुलिस का चालान
अपनी रसूख से 
बच के चलियेगा बायीं ओर 
इन रसूखदार धूर्तों से 
भरी पड़ी है सड़क मूर्खों से
भरी पड़ी है सड़क मूर्खों से
********************
परवाणु से कालका और कालका से पिंजोर पहुँचा | पिंजोर से रेलवे ट्रैक के साथ चलते हुए लोहगढ़ पहुँचा |



 कुछ और आगे एयरफोर्स रनवे के पास से नयागांव कि ओर (बायीं तरफ) मुड़ गया |
कुछ ही दूर चला था कि चढाई आ गयी | मैंने चढ़ने के लिए ज़ोर लगाया लेकिन साइकिल ने हार मान ली | ठक-ठक और कड़ाक की आवाज़ के साथ चैन उतर गयी | टायर एक दम जाम हो चुका था और यहाँ से मेरा हॉस्टल 15 km दूर था |


साइकिल की स्तिथि देख कर ही समझ गया था कि अब चंडीगढ़ तक साइकिल ऐसे ही घसीटनी पड़ेगी | 6 km घसीटने के बाद पक्की सड़क आयी ही थी कि बारिश शुरू हो गई | मोबाइल और कैमरे की बैटरी निकाल के साइकिल की सीट के नीचे छिपा दी | जब तक सिर छुपाने की जगह मिली तब तक तो मैं पूरी तरह से भीग चुका था | मैंने अपना सफर जारी रखा | नयागांव पहुँचने तक बारिश बंद हो चुकी थी लेकिन नयागांव की सड़कें, गलियां पानी से भरी हुई थीं | घुटने तक पानी में साइकिल घसीटते हुए मैं शाम 7 बजे हॉस्टल पहुँचा |

दिखी आया मैं पहाड़ कसौलिया दा 
कोई खास फर्क नी साड़ी बोलिया दा 
पहाड़ां दे माणु तां बच्चे शिवां दे 
जिदी मर्जिया ने सोहणे फुल खिला दे 
जिन्नि रचाया बिच्छूबूटिया दा जाल 
ओही जाणदा है पहाड़ां दा हाल

देख आया मैं पहाड़ कसौली का 
कोई खास फ़र्क नहीं है हमारी बोली का 
हम सब तो एक ही भगवान के बच्चे हैं 
जिसकी मर्ज़ी से फ़ूल खिलते हैं
जिसने रचाया है बिच्छू बूटी का जाल 
वही जानता है पहाड़ों का हाल
वही जानता है पहाड़ों का हाल 
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इस तरह सुबह 6 बजे शुरू हुई मेरी कसौली यात्रा शाम 7 बजे ख़त्म हुई |
यात्रा खर्च विवरण
नाश्ता - आधा किलो सेब तथा आधा दर्जन केले = 80 रुपए
लंच -  1 भुट्टा = 20 रुपए  (15 रुपए का भुट्टा + 5 रुपए टिप)
कुल यात्रा खर्च = 100 रुपए
साइकिल ठीक करवाने का खर्च = 200 रुपए





Monday 19 September 2016

चण्डीगढ़ टू कसौली साइकिल यात्रा भाग-1

उठ फ़रीदा सुत्या
दुनिया देखण जा
शायद कोई मिल जाए बख्शया
तू भी बख्शया जा......
बाबा फ़रीद जी कहते हैं कि उठो और दुनिया देखने जाओ और अगर कोई ऐसा बन्दा मिल जाए जिसने भगवान को पा लिया हो, तो उससे तुम भी यह बख़्शीश ले लो |
बहुत दिनों से कसौली जाने का मन था | जी हाँ वही :
माए नई मेरीए शिमले दी राहें चम्बा कितनी के दूर
शिमले नी बसना "कसौली" नी बसना चम्बे जाना जरूर
-वाली कसौली |
कभी गियर वाली साइकिल का जुगाड़ नहीं होता, तो कभी कोई हमसफ़र नहीं मिलता | खैर 17 सितम्बर कि सुबह मैं अपनी तमाम दिमागी सीमाओं को दरकिनार कर, अकेले ही निकल पड़ा कसौली की ओर, मेरी सेकंड हैण्ड हीरो हॉक (Hero Hawk) पर जिसमें न गियर हैं, न घंटी, न स्टैंड, और ब्रेक भी सिर्फ अगली ही लगती है !
सुबह करीब 6 बजे हॉस्टल से निकल पड़ा | चण्डीगढ़ के 12 सेक्टर से नयागांव होते हुए बद्दी रोड़ (करोरां) पे चलने लगा |


यह रोड़ शॉर्टकट है, माने "चोर रास्ता" शिमला से आने/जाने वाले जानकर लोग और टिप्पर/ट्रक यहाँ से निकल के टोल टैक्स बचाते हैं और सीधा पिंजौर निकलते हैं | खैर रोड़ बहुत ही ख़राब है | इसी रास्ते को सांप की तरह लपेट रखा है पटियाला की राओ (बरसाती नाला) ने | रास्ते में दो जगाहें ऐसी हैं कि रेत के ऊपर साइकिल चलानी पड़ती है और साइकिल मछली कि पूँछ कि तरह हिलती है | इसी सड़क पे आखिर में चढ़ाई है और अक्सर मैं प्रैक्टिस करने यहाँ तक आता हूँ |



कुछ और आगे चल के यह सड़क बद्दी-नालागढ़ हाईवे से मिल जाती है | यहाँ से मैं पिंजौर कि तरफ चलने लगा | लोहगढ़ फाटक से बायीं ओर, रेलवे ट्रैक के साथ-साथ बने रोड़ पे हो लिया ओर यह रोड़ सीधा जीरकपुर-पंचकूला-कालका हाईवे पे मिल गया | करीब 8 बजे कालका पहुँच कर एक स्थानीय अधेड़ उम्र व्यक्ति से इत्मिनान से बात की |



मेरी साइकिल को देख के उनका पहला सवाल यह था,
"इस पे जाओगे कसौली" ?
हाँ जी, इसी पे जाऊंगा और जाने के लिए साइकिल नहीं "जिगरा" लगता है |
बात तो तुम्हारी सही है बहुत जाते हैं कसौली, "चंडीगढ़ के फ़ौक़े फेंटर (कागज़ी शेर)", पर आज की पीढ़ी में वो दम नहीं और उनहोंने बीड़ी का एक लंबा कश भरा और खांसते-खांसते उनकी पहाड़ों में बीती उम्र के तमाम लम्हें मानो साँस के साथ खींच लिए गए हों, फेफड़ों के गर्त तक और गहराई से गला साफ़ कर थूक दिए, हमारी पीढ़ी पे |
मैंने उनसे पूछा सबसे छोटा और कठिन चढ़ाई वाला रास्ता कौन सा है ? उन्होंने मुझे ओल्ड कसौली रोड़ वया जंगेशु, मशोबरा से जाने को कहा |
पानी पीने के बाद पूरा रास्ता रटता हुआ मैं चल पड़ा ,कालका से परवाणू |



परवाणू में मोरपेन फैक्ट्री से थोड़ा आगे तीखा बहिना मोड़ लेके मैं सीधे कसौली के रास्ते पे पहुँच गया | "उस मोड़ से बस उसी सड़क पे रहना, कहीं मत मुड़ना, ताँगे में जुते हुए घोड़े की तरह सामने ही देखना, पहाड़ों की ओर, वही आशीर्वाद देंगे और शक्ति भी !" ऐसा ही कहा था, उस धूप में झुलसे चेहरे वाले अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने, जिन्होंने बहुत सरल शब्दों में अपने तीखे व्यंग से मेरी पहाड़ से लड़ने की हेकड़ी तोड़ के रख दी |



सुनसान पहाड़ी सड़क और नीचे बहते नाले की आवाज़
जो कभी-कभार दब जाती, किसी गाड़ी के आने पे
जो रौंद डालती है, पहाड़ों का सन्नाटा
अपने हाँफते ईंजन की आवाज़ से
और ढक देती है, हरयाली को
धूल की परत से
और मैं बना लेता, उधार के गमछे का पोंछा
और पोंछता अपना भविष्य
ताकि दिख जाए मुझे कुछ
चश्मे के उस पार
जो लगा रखा है हम सब ने
अपनी आँखों पे



आधा घण्टा हो गया पैदल चलते-चलते, भाई चढ़ाई तीखी है और साइकिल देसी | जब थकान से हार कर बैठने ही वाला था कि तभी दिख गया यह मील का पत्थर और हो गया मैं खुश| 12 बस 12 km ही तो है और लगाने लगा अपना ही हिसाब, मंज़िल तक पहुँचने में लगने वाले वक़्त का!!!



तभी नज़र गयी बदल चुकी वनस्पति पे | जाने पहचाने पौधे दिखे और घर जैसा एहसास होने लगा | ये पंचफूली, ये गान्दला, ये बसूँटी और ये जबलोठा जिसके पत्ते कि डंडी को तोड़ के बुलबुले फुलाये थे बच्च्पन में | लेकिन ये सब गायब हो रहे थे धीरे-धीरे और दूर नज़र आ रहे थे और ऊंचाई पे उगने वाले चीड़ के पेड़ |

प्रकृति के नज़ारे देखता हुआ पहुँच गया मैं, झरने के पास जो डरा रहा है अपनी भारी आवाज़ से ठीक उस खुजली वाले कुत्ते की तरह, जिसे हर कोई मार जाता है पत्थर और वो चाहता है, एकांत ताकि अपने ज़ख़्म भर सके | मगर उसे कोई चैन से बैठने भी तो नहीं देता, चढ़े रहते हैं लोग उसपे हाथ मैं बरगर लिए, सेल्फी खिंचाने को और बढ़ा देते हैं उसकी खुजली और भी, उस पर कूड़ा फेंक कर !!!!!!!



सजन रे झूठ मत बोलो
खुदा के पास जाना है
न हाथी है न घोडा है
वहां पैदल ही जाना है
हाँ भाई पैदल ही चल रहा हूँ उस 12 km वाले मील के पत्थर से और गुनगुना रहा हूँ यह गाना | एक बार तो मन में यह ख्याल आया की पंगा काफी बड़ा ले लिया पर अब तो कसौली पहुँच के ही मुड़ना है और जितनी तीखी चढाई है उतनी मीठी उतराई भी तो होगी | खैर अब मैं वापिस आ गया हूँ तो यही कहूंगा कि, "बहुत मज़ा आया" |




कसौली 7 km इस मील के पत्थर पे नज़र बाद में पड़ी पहले रेन शेल्टर दिख गया |मैं तो बैठ गया यहाँ और दोनों बोतलों में लाया सारा पानी पी गया | अभी 7 km और चलना जो था वो भी पैदल साइकिल हाथ में लिए |



खैर प्रकृति के नज़ारे लेता हुआ मैं मशोबरा पहुँच गया और कसौली अब बस 3 km ही दूर था |



आधे घंटे में कसौली भी आ गया | कसौली पहुँचने पर सबसे पहले स्वागत किया कूड़े के अम्बार ने | गमछा नाक पर दबाए वो 200 m का इलाका, जिसको टीन की दीवार से ढक दिया गया है ताकि कारों में जाते लोगों को गंदगी न दिखाई दे और पहाड़ी सौन्दर्य का रसपान करने में मगन, पिज़्ज़ा खाते लोगों को खट्टी डकार न आ जाए |




बस स्टैंड से ऊपर की तरफ़ बाजार में जा के ब्रेक लगाई और आधा दर्जन केले और 3 सेब (आधा किलो) ले लिये और पास ही लगे बेंच पर बैठ खाने लगा |


केले खा चूका था एक सेब आधा ख़त्म था कि बंदर आ गए, मैं आधा सेब मुंह में दबाये और दो सेब वाला थैला हाथ में लिए साइकिल उठा के भगा | अब ब्रेक सीधा सनराईज़ पॉइंट पे लगाई |

यहाँ इत्मिनान से बैठ कर बचे हुए सेब खाए | यात्रा का आधा अध्याय समाप्त हो चूका था और सड़क पर टहलते हुए मंकी पॉइंट कि ओर जाते लोग मुझे ओर मेरी साइकिल को देख कर शायद यही सोच रहे थे :

जैसे कोई लिए जा रहा हो ऊँट पहाड़ों में
जैसे कोई चरा रहा हो याक थारों में
जैसे चल रहा हो कोई जूते सर पे रख कर
जैसे रगड़ रहा हो कोई आग के लिए पत्थर
थक चूका हूँ लेकि जिगरा-ए-जोश हूँ
हाँ मैं ऐसा, खानाबदोश हूँ

हम नहीं जानते हैं, कि रोटी कितनी कीमती
मिल जो जाती है हमें, कर विनम्र विनती
(मम्मी खाना ला दो प्लीज़)
जब चढ़ना पड़ता है पहाड़ आटे की बोरी पीठ पे लाद के
नीचे लाले की दूकान और घर ऊपर चोटी पहाड़ पे
पसीने से गुंथ जाता है आटा पीठ की परात में
तब जा के जलता है चूल्हा पहाड़ में
मैं उस बेहोशी से सुलगते
चूल्हे का होश हूँ
हाँ मैं ऐसा खानाबदोश हूँ

मैं नहीं करता किसी की मज़दूरी
लालच से भी रखी है मैंने कोसों दूरी
न बेचता हूँ मैं अपने पहाड़ों की मज़बूरी
चराता हूँ मैं भेडें, घर छोड़-छाड़ के
कहते हैं मुझे गद्दी, हैं पहाड़ी मिज़ाज़ के
पक्के हैं हम पूरे अपने रीती-रिवाज़ के
उठा नहीं हूँ, अब भी ज़मींदोज़ हूँ
हाँ मैं ऐसा खानाबदोश हूँ