Tuesday 29 November 2016

गंगा जी की ओर चण्डीगढ़ से हरिद्वार

जो है स्वर्ग में मन्दाकिनी 
भागीरथी भू लोक पर 
जो है ब्रह्मचारिणी 
है माँ मृत्यु लोक पर 
जो है जाह्नवी  
नारी शक्ति स्वरूप पृथ्वी लोक पर 

जो है पाप नाशिनी
मुक्ति दायिनी
तृष्णा ध्वंसकारी 
ज्ञान प्रददाति संस्कारी 
जिसमें डुबकी लगा 
मनुष्य धर्म रंग में रंगे
हर हर गंगे 
हर हर गंगे 
हर हर गंगे 


चल सुन तू भी गंगा जी कि पुकार
जो है ज्ञान का अक्षय धनागार 
जो है आलौकिकता का रूप साकार 
धोकर हमारे पापों का भार
करती मानवता को निर्विकार 
चल-चल अब बाकि सब विचार त्याग 
चल-चल करती गंगा का मधुर राग 
सुन त्रिलोक कि सुरधनी का आलाप   
अब चल छोड़ सब क्रियाकलाप 

सांसारिक आडम्बर छोड़ चलें 
चल अब गंगा जी कि ओर चलें 
चल चलें चंडीगढ़ से हरिद्वार
होके साइकिल पे सवार
लगाएं गंगाजी में डुबकी   
और गंगा तो मैया है हम सबकी 

शागिर्द :

जी चण्डीगढ़ से हरिद्वार 200 km दूर है 
और 200 तो एक तरफ का कुल 400 का टूर है
खैर ये तो सब मीलपत्थरों की माया है 
और हमसफ़र गुरु है तो रहनुमा हमसाया है   
मनुष्य तो वही है जो विपत्तियों से न डरे
जो आँधियों के बीच सीना तान चला चले
चलो आज उसी धर्म की राह चले चलें  
सब काम दरकिनार कर चलें  
चलो गंगा स्नान को चलें 

निकले चण्डीगढ़ से 24 नवम्बर, सुबह 3 बजे


अभी भोर को समय है 
संसार अभी सोया है 
और जो सोया है 
उसने तो खोया है
सामान दोनों का जो एक झोले में डाल दिया गया 
फिर उस झोले को साइकिल के पीछे बांध दिया गया
ब्रह्मवेला में चण्डीगढ़ से प्रस्थान जो किया 
और अँधेरे पथ को टोर्च से प्रकाशवान जो किया
ढ़लती निशा में अभी ठण्डक है थोड़ी  
हरिद्वार की ओर चली गुरु-चेले की है जोड़ी



चण्डीगढ़ से ज़िरकपुर और ज़िरकपुर से पहुंचे अम्बाला 
दो घण्टे के सफ़र ने पूरा शरीर गरमा डाला
साइकिल की सवारी 
अम्बाला से सहारनपुर की ओर हो गई 
और मुल्लाना में भोर हो गई 





एक चाय की दुकान पे हम जो रुके
अभी तलक तो थे हम भी कुछ थके
एक बुजुर्ग ने हमारा पूरा मनोरंजन कर डाला 
अपनी कटु अभिव्यक्ति से 
राजनीती का चीरहरण कर डाला 
73 की उम्र में भी वो चेहरा कैसा खिले 
अब ऐसे लोग विरले ही मिलें
चाय पी और कहा अलविदा 
हम तो अब अपनी राह चले
चण्डीगढ़ से हरिद्वार 
हम गंगा जी कि ओर चले चलें 



खैर बात गंगा जी कि हुई है 
तो थोड़ा विस्तार में बताता हूँ 
स्वर्ग से भू तक कि सुनाता हूँ 
बड़ी अनूठी है मेरे रहनुमा कि यह माया 
जिसने ऐसा खेल रचाया
तपस्वी ब्रह्मचारिणी गंगा जी का 
अहंकार देखो कैसे भगाया 

हिमालय पुत्री उमा का जब शिव से विवाह हुआ  
विदाई के समय तब शिव-गंगा का टकराव हुआ 
शक्तिशाली कौन दोनों में इस बात पे वाद-विवाद हुआ 
ब्रह्मचारिणी रहूंगी जीवन भर 
बैठूंगी तुम्हारे ही मस्तक पर  
गुस्से में आकर तब गंगा ने तब यह प्रण धार लिया 
और समय आने पर अपना वचन निर्वाह किया 

इक्ष्वाकु कुल राजन सगर ने अश्वमेघ यज्ञ प्रदीप्त किया 
अपने साठ हज़ार पुत्रों को घोड़े का दायित्व दिया
फिर देवराज इन्द्र ने सिंहासन भय में छलकपट किया 
घोड़ा माया से मुनि कपिल के आश्रम में बाँध दिया
सगर पुत्रों ने मुनि को खरीखोटी जो सुनाई 
तपस्या भंग हुई मुनि कि 
अब उनकी शामत आयी
मुनिवर हुए क्रोधित जब कभी  
शाप से भस्म कर दिए पुत्र सभी 
जब राजा सगर मुनि से क्षमा मांगने आया 
तब मुनि ने पुत्र मुक्ति के लिए 
गंगाजल का मार्ग सुझाया 
गंगा के स्पर्श से मिलेगा तुम्हारे पुत्रों को मोक्ष 
पर गंगा बसे त्रिलोक में भू पर लाये कौन ?
फिर मुनि ने राजन को कठोर तपस्या का मार्ग दिखलाया 
कहा परिश्रम ही वो मार्ग जो सदा ले स्वर्ग भू पर आया 
राजा सगर पहुँचा हिमालय 
घोर तपस्या को आया 
तप करते-करते प्राण छूट गए 
फिर पौत्र अंशुमान ने तप का बेड़ा उठाया 
अंशुमान पुत्र दिलीप भी इसी मार्ग पर आया 
पर जब सुना भागीरथ ने पिता दिलीप भी तप में गया समाया
विवाह बेदी छोड़ भागीरथ वंश तारने आया 
तप में लीन भागीरथ को गंगा ने जो डराया
कि तू संतानहीन है, यहाँ अपना वंश मिटाने आया 
इधर भागीरथ का तप 
उधर गंगा जी का तप 
तप का तप से टकराव हुआ 
गंगा का अहं विकराल हुआ 
गंगा भू पर लाने आये भागीरथ को
गंगा ने ही शाप दिया

राख कर दे तेरे तपोबल को मेरी समस्त तपसिद्धि
और तू सोचता है तू मुझसे बड़ा है  
गिर जा तू वहां से जहाँ भी तू खड़ा है 
मारी जो गयी थी अहं में बुद्धि 
शाप से दोनों कि ही नष्ट हुई सिद्धि
भागीरथ हंसा और फिर से तप में लग गया 
प्रसन्न हुए भगवान और वर मांगने को कहा 
भागीरथ ने मांगी गंगा और पुत्र प्रदान करने को कहा 
भगवान ने एक शंका जताई 
अगर इस क्रोध से गंगा भू पर आयी 
तो पृथ्वी का नाश पक्का है
भोलेनाथ ही इस समस्या का समाधान सच्चा है 
फिर भगवान ने शिव के जटाजूट की युक्ति सुझाई
भागीरथ फिर लीन हुआ तप में 
उद्यमी एक बार फिर लगा उद्यम में    
स्थान गौकर्ण में एक साल तक एक पैर के एक अँगूठे पर खड़ा रहा 
भोलेनाथ को प्रसन्न करने में लगा रहा 
केवल वायु का सेवन किया 
कठोर तप से भोले को प्रसन्न किया 

आखिर वह शुभ घड़ी आयी 
भागीरथ की तपस्या 
ले गंगा को स्वर्ग से भू पर आयी 
शिव ने फिर गंगा को जटाओं में जकड़ लिया
सारा अहं पानी में बदल दिया 
फिर एक लट अपनी खोल दी 
बिन्दुसर में गंगा छोड़ दी 
छूटते ही गंगा सात धाराओं में बँट गई
तीन गयीं पूर्व तीन पश्चिम 
और सातवीं भागीरथ के पीछे चल पड़ी 
गंगा त्रिपथा और भागीरथी बन गई 

भागीरथ ने फिर गंगा मैया को रास्ता दिखाया 
लेकिन एक आश्रम जो राह में आया 
गंगा के जल ने जब आश्रम में उत्पात मचाया 
ऋषि जहुन को क्रोध आया
और वो गंगा का सारा पानी पी गए 

फिर आग्रह करने पर ऋषि ने गंगा को कानों से निकाला
गंगा अब जाह्नवी बनी
ऋषि जहुन ने है उसे अपनी पुत्री माना
  
गंगा भागीरथ के पीछे-पीछे चलती हुई सागर में मिली 
भागीरथ के पूर्वजों को मुक्ति जो मिली 
मुक्त हुआ वह भी पितृ ऋण से
और इस धरती को माँ स्वरूप गंगा मिली

चलिए यात्रा पे आता हूँ 
यात्रा की सुनाता हूँ 
मुल्लाना से पहुंचे जगाधरी 
धूप भी थी अब कुछ चढ़ी
जगाधरी से चले हम सहारनपुर की ओर
अरे भाईसाहब यह रास्ता है कमरतोड़ 
सड़क तो दो लेन की है
ओर ट्रैफिक है घनघोर



सरसावा से थोड़ा पीछे 
पुल के नीचे 
गंगा की बहन यमुना मिली 
गुमशुदा नकारी सी लगी 
गाड़ी वाले रुकते हैं 
कूड़ा गिरते हैं 
और प्रणाम कर चले जाते हैं 
वाह रे भाई तुम्हारी भक्ति 
यमुना किस्मत पर तरसी 
कूड़ा कर्कट डाल चले
बड़ा करके तुम सम्मान चले 
अब किस मुँह से 
नदियों को माता कह के बुलाते हो
अपने किये पर भी कभी पछताते हो 
कैसी बेशर्मो की है कौम चली 
सब जानते हुए भी मौन चली
कुदरत के नियम 
ये सारे तोड़ चली  
बर्बादी की ओर चली
  
सरसावा से सहारनपुर तक तो और बुरा हाल है 
सड़क बन रही है और चलना दुशवार है 
रास्ता संकरा है 
सड़क किनारे मलवा पड़ा है 
चलें किस ओर 
सामने से बस वाला डिप्पर मारता है
कहता है मैं तो आ रहा हूँ 
तुम नापो अपनी ठौर 



यहाँ ड्राइवर नहीं यमराज गाड़ी चलाते हैं
साइकिल वाले जिनको नज़र ही नहीं आते हैं 
तेज़ हॉर्न बजाता हुआ जब ट्रक सरसराता गुज़रता है
उस समय यम साक्षात् दिखाई पड़ता है


बचते बचाते हम सहारनपुर पहुंचे 
यहाँ भी ट्रैफिक ने भीतर दबोचे
कोई भी कहीं से आ जा सकता है 
ये U.P है दोस्त, यहाँ सबका राज चलता है 
अरे ये टेम्पो वाले भी बड़े हैं निराले 
साथ सटा के चलाएंगे
ब्रेक आपकी लगेगी 
ये तो भईया निकल जावेंगे

खैर निकले सहारनपुर से 
एक ढ़ाबे पे रुके
खाना लगाने को बोला 
और चारपाई पे ढह गए


आधा घण्टा हो गया 
खाना न आया 
पता चला की अभी बनाने वाला नहीं आया 
जब नहीं आया तो हमें बैठा क्यों लिया 
बेकार में हमारा टेम खोटी किया 
फिर बोला की अभी 35 मिनट लगेंगे
यह 35 का कैसा हिसाब हुआ
बेकार में हमारा समय बर्बाद हुआ  

भूखे ही हम आगे बढ़े 
दिखे जो केले तो गगलहेड़ी में रुके 
भर पेट फिर केले जो खाये 
निढ़ाल शरीर में जैसे प्राण लौट आये 
अब तो ऊर्जा की कोई कमी नहीं 
ये केले भी किसी अमृत से कम नहीं



चलते-चलते अब हम भगवानपुर पहुंचे 
यहाँ से हरिद्वार के दो रास्ते होते
सीधा जो जाए रुड़की वाला 
वो रास्ता है लंबा वाला 
बहिने हाथ मुड़ के इक छोटा रस्ता है कटता 
हरिद्वार है जहाँ से पास पड़ता
चले इसी रस्ते पे दोनों हम दीवाने 
अपनी ही मस्ती में हैं चलने वाले 
वो जो सभी को रास्ता दिखता 
भटके हुए को सही राह लाता
बन्दा तो बस उसी का हुक्म बजाता
रहनुमा भी मेरा परीक्षा लेता है 
चलते हुए का होंसला परख़ लेता है 
टायर अगला जो मेरा पंचर हुआ 
कुछ देर बाद मुझे एहसास हुआ 
अभी राह सुनसान थी
सन्नाटा था छाया
मैंने भी फिर मन बनाया 
मिली जो दुकान तो लगवा लूँगा
नहीं तो ऐसे ही हरिद्वार पहुँचा दूँगा 
इसी सोच से मैं गुरूजी के पीछे चलता आया 
खैर रहनुमा जो था मेरा हमसाया
सब कुछ तो है उसी की माया   
रास्ते में गांव इमलीखेड़ा आया 
दुकान मिली तो गुरूजी को बताया  
परीक्षा लेने पंचर था आया  
टायर में हवा अभी भी बाकी है 
साइकिल ये मेरी सुख-दुःख की साथी है 
खैर ढीले इसके कुछ अंजर-पंजर हैं 
अब अगले टायर में कुल 11 पंचर हैं

सही हुई साइकिल तो फिर से चल दिए 
हरिद्वार की ओर जोश नया लिए
जब यात्रा का अंतिम पड़ाव आता है 
नया जोश भर जाता है 
थके हुए अंगों में फिर नयी स्फूर्ती आती है
ये आखिरी मोड़ है कहते-कहते
बची हुई राह भी कट जाती है 

आखिर हम हरिद्वार पहुंचे 
हर हर गंगे 
हर हर गंगे 
के जयकारे गूँजे
उतर गए सीधे घाट पर साइकिल सहित
किया वो कर्म आज जो था पहले से निहित
गंगा को देख कर मैं बस देखता रहा 
भीड़ तो थी बहुत मगर मुझे घाट निर्जन ही लगा 
ये आडम्बरों से घिरे लोग कब आँख खोलेंगे
कब चश्मे पर जमी धूल पोछेंगे 
जब परिश्रम ही नहीं करोगे 
तो पूजा पाठ से क्या होगा
दिल में है चोर 
तो दान से क्या होगा 


गंगा की रीत निभाने आये हैं 
बहुत सारे यहाँ अपने बजुर्गों को घड़े में भर लाये हैं
अस्थियां गंगा में बहती हैं 
लुगाई ख़सम से कहती है 
आज से बाबूजी का कमरा मेरे भाई का होगा
और घर जयदात सब मेरे नाम होगा 
आज से घर परिवार के सब नाते निभाएंगे 
अगली बार मम्मी जी के टाईम ऋषिकेश भी घूमने जायेंगे


अगली सुबह हर की पौड़ी पर गंगा स्नान किया
कुछ चिंतन मनन विचार किया 
शांत हुआ जब मन का भंवर 
फिर गूँजे ये गीत स्वर:  

नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को
सबल-संग्रामी, समग्रोगामी
बनाती नहीं हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा 
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ ?
(-डॉ भूपेन हज़ारिका)
  

Sunday 13 November 2016

चूड़धार यात्रा भाग-2

ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ 
हम अपने शहर में होते तो घर गए होते 
(- निदा फ़ाज़ली ) 

चूड़धार की सर्द रात है 
और तम्बू में दुबका पड़ा हूँ मैं
भेड़ की ऊन के दो कम्बल हैं मेरे पास 
उन्हीं में सिमटा पड़ा हूँ मैं
घुटने छाती से लगाए
हाथों से पैरों को सेंकता हूँ मैं
सर-सर करता तम्बू का कपड़ा 
सर्द हवा के थपेड़ों से है अकड़ा 
माँ की पुरानी चुनरी सर पे लपेटे 
पड़ा हुआ हूँ मैं

सोचता हूँ आज मैंने क्या पाया? क्या देखा?
क्या खोया ? क्या सीखा ?   
मैंने पाया खुद को खुद के और करीब  
देखा तो उसी को हर जगह 
जो मैंने खोया तो अपना झूठा ज्ञान
और सीखा की वही है हर वजह की वजह  

खैर भली है मेरे रहनुमा की रहनुमाई 
दूसरे पहर में मुझे नींद आई
नींद भी है ये कैसा वरदान 
वक़्त से इंसान हो जाता है अनजान

टन-टन की आवाज़ जो आई कहीं से 
शायद वो घण्टी बंधी जो गधे के गले से
नींद जो मेरी इसने उड़ाई 
जो गधे ने तम्बू से अपनी पीठ सर-सराई
तीसरे पहर के मध्य में
तम्बू से फिर जो मैंने सिर निकाला 
गधों ने मैदान में डेरा है डाला 
अब तो बस यही दुआ करो भाई 
कोई गधा तम्बू न उखाड़ दे भाई 
गधे जब तम्बू के चक्कर लगाते
घण्टी की टन-टन से जो डराते
अब तो उठ के बैठ गया 
अब नींद कहाँ आये 
ऊपर से सर्द रात जुल्म ढाए
ना ज़ाने कहाँ से रिस कर सर्द हवा आए

चित्र सुबह लिया गया है |

अब तो बैठ गया हूँ मैं चौंकड़ी मार के 
दोनों कम्बल भी ओढ़ लिए हैं लपेटा मार के
आखिरी पहर ये किसी तरह निकल जाए 
सर्द रात के बाद जो खिली धूप आए
उसका स्वाद ही निराला होगा 
अँधेरे के बाद जब उजाला होगा 

मेरे रहनुमा तूने कैसी ये कायनात बनाई 
ये सूरज ये चाँद ये दिन ये रात 
ये सर्दी ये गर्मी 
ये बसंत ये बरसात 
क्या रंग-ए-कुदरत में तूने भरे 
फिर भी इंसान क्यों तुझसे ना डरे  
तेरी ही ताक़त जो सबसे बड़ी है 
इंसान की मत तो मरी पड़ी है 
काटे हैं जंगल कारखाना लगाया 
प्रदूषण ही प्रदूषण है सब जगह फैलाया 
कहते हैं फिर की बर्फ़ कम गिरी है 
हमारी ही हरकतों के कारण गिरी है
ग्लेशियर ने भी हैं पाओं पीछे खींचे
सूखे हैं झरने अब खेत कहाँ से सींचें  
जो कहता है कि वो सबसे बड़ा है 
अपनी ही कब्र खोदे खड़ा है 

खैर मैं कम्बल लपेटे हुए तम्बू से बहार आया
अंतिम पहर के अँधेरे का साया 
रुख़सत हो रहा था 
वो दूर कहीं संतरी आसमान अलसाया
अंगड़ाई ले रहा था  
वाह ये नज़ारा नशीला 
पहले बादल की चादर फिर संतरी फिर नीला


क्षितिज़ की और आँखें लगाए 
ऊष्मा के इंतज़ार में
उत्सुकता से भरे हुए नयन अलसाए
करता हूँ भगवान से  प्रार्थना 
ध्यान क्षितिज़ पे लगाए 
सर्द रात में मुझे भेड़ की ऊन का कम्बल बन लपेट लेना 
और सुबह मुझे मेरे हिस्से की धूप देना
मेरे रास्ते के पत्थर चाहे बड़े कर देना 
पर जब थक जाऊँ तो दिल में जोश जगा देना 
और अगर मुनासिब हो तो थोड़ा ज्ञान भी देना
मुझे तुम मेहनत का दान देना

    

खैर निशा ख़त्म हुई आदित्य उदय हुआ 
ठण्डा पड़ा शोणित अब कुछ गर्म हुआ 
मानो कोई होली खेल रहा हो 
संतरी रंग की पिचकारी सब पर ठेल रहा हो 
सब कुछ प्रकाशवान है 
पहाड़ पत्थर बादल सब दीप्तमान हैं 
शिथिल परिवेश में ऊर्जा का संचार है
हे सूर्यदेव चारों दिशाओं में तेरी जय-जयकार है 



चढ़ता हुआ भानु मनोबल चढ़ा देता है 
प्राकृति के प्रति सम्मान बढ़ा देता है 
अन्धकार मिटा देता है 



खैर हमने तम्बू उखाड़ा और सामान समेटा
शिरगुल महाराज के दरबार में हाज़री लगाई 
फिर जिस राह आए थे उसी राह कारवां लौटा
फिर पहाड़ी पे चढ़ के भोलेनाथ के किए दर्शन
कैसा मनोरम ये चूड़धार दर्शन 



बात है इसकी एक बड़ी ही निराली 
यही सबसे ऊँचा पर्वत है 
जहाँ तक निगाह डाली 
खड़े होके इस पर सुदूर पहाड़ दीखे 
कुछ जाने पहचाने 
कुछ नए नाम सीखे 
चलो भाईयो अब लौट चलें 
जिस राह आए थे उसी राह चलें 


नीचे जो हम चश्मे तक उतर आए
थे हम सभी भूख के सताए 
फिर किन्नौरी ने अपने झोले से पतीला निकाला 
मैंने भी कामचलाऊ चूल्हा बना डाला 
लकड़ी इकठ्ठी कर फिर आग जलाई
फिर पतीला भर मैग्गी बनाई 
जो बचे अंगारे तो उसमें आलू दबा दिए 
मैगी खा के शांत हुए 
तब तक आलू भुना गए   
खैर आलू रख लिए राह के लिए 
पानी भर चल दिए हम नौहरा के लिए




पेट जो भरे तो नयी ऊर्जा आई 
तीनो हम अब तो दौड़े चले भाई 
अब रुकते नहीं हैं बस चलते जाते 
थके हुए हैं पर 
गीत ख़ुशी के गाते


जंगल के भीतर जब फिर वो घास का मैदान आया 
कुछ देर के लिए वहां डेरा जमाया 
पानी पिया और आलू भी खाये 
फिर से जो सफ़र शुरू किया 
सीधा जा के नौहरा में ख़त्म किया 
नौहरा से फिर चण्डीगढ़ पहुंचे 
यात्रा समाप्त झुई 
सब सकुशल लौटे
देखा चूड़धार, सब भोले की माया 
रहनुमा वो मेरा, मेरा हमसाया 
पर उसी को खोजता था मैं आया 
और जो देखा जो अंदर तो उसी को पाया 
रहनुमा वो मेरा, मेरा हमसाया

जानकारी 

1. अगर तम्बू में रात बिता रहे हों तो अपना सारा सामान समेट कर बैग में भर कर ही सोएं | बिखरा हुआ सामान सुबह तक सीलन  से भीग चुका होगा |

2. आपने साथ लेकर गए तमाम प्लास्टिक, मैगी, चिप्स, बीसकिट  के खाली पैकेट वापिस ले आएं; यहाँ-वहां गन्दगी न फैलाएं |

इस यात्रा का सबसे सुन्दर चित्र गुरूजी को समर्पित है, जिनके साथ पिछले साल मैं यहाँ आया था और यहीं से मेरी ट्रैकिंग की शुरुआत हुई थी :




Thursday 10 November 2016

चूड़धार यात्रा भाग-1

शिवालिक के शिखर पर
सिरमौर के सिर पर
बैठे हैं चूड़ेश्वर महाराज


गिरी के पार से
नौहरा की धार से
चढ़ेंगे आज

तीन यार हम चंडीगढ़ से
निकले पूरे दम से
देखेंगे आज भोले का राज

परांठे लिए नौहरा से
सामान उठाया कंधे पे
चलो करें यात्रा का आगाज़

चलो भाई पहाड़ चढ़ें
धीरे-धीरे आगे बढ़ें
देखें चूड़धार का मिज़ाज़

 रास्ता पामाल है
नज़ारा भी कमाल है
पहले परिचय करता हूँ
साथियों से मिलाता हूँ

सबसे आगे किन्नौरी है
अखियाँ बिलौरी हैं
बन्दा देसी पहाड़ी है
क्रिकेट, वॉलीबॉल का उम्दा खिलाडी है
नाम है गौरव
स्वभाव है नीरव


उसके पीछे शिमलाई है
टैलेंट की खाई है
गिटार बजता है
गाना भी गाता है
फोटोग्राफी में भी माहिर है
चित्रकला में साहिर है
नाम निशांत है
रहता शांत है


सबसे पीछे जिला काँगड़ा के नौजवान
झोला पूरा भर लाये हैं
यात्रा चाहे 2 दिन की है
रसद हफ्ते की लाए हैं
अक्सर डगमगाता हूँ
अपने बोझ तले दबा जाता हूँ
पर गीत ख़ुशी के गाता हूँ


खैर अब यात्रा पे आता हूँ
आँखों-देखी सुनाता हूँ
नौहरा से चढ़ने के बाद
समतल पगडण्डी है आबाद
लोग भले मिलते हैं
सीढ़ीनुमा खेतों में लगे दिखते हैं
पहाड़ों का जीवन है बहुत कठोर
जीने के लिए संघर्ष है पुरज़ोर
खेत बेशक छोटे हैं
लोगों का दिल बहुत बड़ा है
पहाड़ी बाशिंदा आज भी ज़िद पर अड़ा है
मुश्किल है जीना तो मुश्किल ही सही
मुश्किल की मुश्किल तो मुश्किल नहीं
मेहनत ही जीवन का मंत्र एक है
तराशे पहाड़ों ने बन्दे नेक हैं

आबादी के बाद सब सुनसान है
यहाँ जर्रे जर्रे पे वही नाम है
जिसकी है ये दुनिया
जिसकी पूरी कायनात है
वो रहनुमा जो मेरा मेरे साथ है

सघन जंगल है आगे
दोपहर में शाम जैसे
यहाँ सुनाई देती दिल की आवाज़ है
समझना है उसको जो राज़ है
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ है



जंगल के भीतर
इक मैदान है
यहाँ पिछले साल थे ढ़ाबे
इस साल सुनसान है



यहाँ कुछ पल जो फुरसत के बिताए
खाए परांठे जो संग लाए
पेट भरा तो ऊर्जा नयी आई
बहुत आराम हो गया अब चलो मेरे भाई


धीरे-धीरे बढ़ते हैं और बढ़ती है ऊंचाई
अब जंगल ख़त्म हुआ और ज़मीन पथरीली आई
इसी के आगे जो एक मोड़ है
निगाह-ए-करम का वह जोड़ है
मोड़ मुड़ते ही होते हैं दर्शन भोलेनाथ के
लगाओ जयकारे भोलेनाथ के
वही जो बैठे हैं शिवालिक के शिखर पे
सिरमौर के सिर पे
यहाँ से कितने सूक्ष्म नज़र आते
टूटते होंसलों को जो जोश दिलाते
तुम्हारा ये राज तो कितना हसीं है
तमाम सुंदरता बस यहीं बसी है
सुनहरी पहाड़ सोने से नज़र आते
थके मन को कितना हैं भाते


वैसे तो राह में पानी की कमी नहीं है
लेकिन इस सोते का कोई सानी नहीं है
पानी थोड़ा-थोड़ा करके जो बोतल में आता
सब्र का पूरा फल है दे जाता
गले से उतरता तो अमृत के जैसे
पर ठंडा बहुत है बर्फ़ के जैसे
स्वाद है इसका बड़ा ही आलोकिक
खैर ये क्षेत्र ही है दैविक


आगे अब जो दो रस्ते हो जाते
एक पहाड़ घूम के जाता
या दूसरे से सीधा ऊपर चढ़ जाते
खैर मेरे साथियों ने रखा जिगरा है
अब तो सीधा चढ़ जायेंगे पहाड़
आखिर पहाड़ियों का तिकडा है


अब चट्टानें जो राह में आयीं
बने हम दोपाया से चौपाया भाई
किन्नौरी जो फट से ऊपर चढ़ जाता
हाथ पकड़-पकड़ फिर हमें है चढ़ाता

पहुंचे हम भोलेनाथ के पास
तो शाम ढल आई
ये नज़ारा भी क्या है खास
कि रूह खुशनुमाई



बैठे हम भोले के दरबार में कुछ पल
पता ही नहीं चला कब सूरज गया ढल
इस ओर तो रौशनी है
उस ओर तो अब रात है
जाना है जिस ओर
उसी ओर अन्धकार है
ऊँचे पहाड़ों का ये पर्दा निराला
एक तरफ अँधेरा एक तरफ उजाला
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है
मेरा पूरा ख्याल रखता है
शिमला से जो दो देवियाँ भी आयीं
उन्होंने ही फिर नीचे मंदिर तक कि राह हमें दिखाई
ये कुदरत उसी कि करिश्मा उसी का
सूरज उसी का चंद्रमा उसी का
वही है जो सभी में विद्दमान है
वही हिन्दू है वही मुसलमान है
कितना खुला हुआ यह राज़ है
फिर क्यों आंख मूंदे सभी आज हैं
सभी ग्रन्थ कहते वही अंतिम इकाई है
फिर उसी इकाई को बाँटने क्यों तुले भाई हैं ?


मंदिर के नीचे जो छोटा मैदान है
वहीँ पर बसेरा हमारा आज है
अँधेरे में जो हमने डेरा जमाया
ठिठुरते हाथों से तम्बू लगाया
इस ठंडी रात का इम्तिहान है
बीच में तम्बू है बस
वैसे तो खुला आसमान है
आशियाना बना हमने
मंदिर में लंगर जो खाया
आज कि तमाम यात्रा के बाद
बहुत मज़ा आया
बहुत मज़ा आया

अगले भाग में पढ़िए सर्द रात के वो चार पहर..............

 जानकारी

1. चंडीगढ़ से यात्रा श्री गणेश स्थान नौराधार 135 km दूर है ओर गाड़ी से 5 घंटे लगते हैं |
अगर बस से जाना चाहें तो चंडीगढ़ से सोलन और सोलन से राजगढ़-नौहराधार-हरिपुरधार वाली बस में बैठ जाएं |

2. इस यात्रा में पानी कि कोई कमी नहीं है 1 लीटर कि बोतल से काम बन जायेगा |

3. यात्रा 16 km लंबी है और रस्ते के बीच में कोई ढाबा नहीं है | अपना खाना नौराधार से पैक करवा सकते हैं | यहाँ ढ़ाबों कि अच्छी सुविधा है | अगर नौहराधार पहुँचने में देर हो जाए तो यहाँ रहने कि सुविधा उपलब्ध है | PWD का रेस्टहाउस भी है |