Wednesday 26 October 2016

चूड़धार चित्र यात्रा


हो चूड़ी देवा शिरगुला भोला शंकरा रूपा
हो भोला शंकरा रूपा शिरगुला 
हो देवा शंकरा दा रूपा
(चूड़धार के देवता शिरगुल जी भोलेशंकर स्वरूप हैं )
हो देखणे जो शिवलिंग तेरो 
चूड़ी रे देवा बोलो
भूमतो प्रकट चूड़ीधरो 
क़ुदरते दी माया 
(चूड़धार में स्वयं-भू-प्रकट शिवलिंग कुदरत की माया है )  
मारे देवा शिरगुला देवा  
जयकारा जयकारा तेरी 
कौरा तेरी 
कौरा हमो सौबी
जयकारा...........
( मेरे देवता शिरगुल जी तुम्हारी जय हो 
तुम्हारी कृपा पाने के लिए हम सब तुम्हारी यात्रा पे आये हैं )

कहते हैं कि एक चित्र हज़ार शब्दों से बेहतर है | इसी तर्ज़ पर आज आपको चूड़धार (जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश) कि चित्र यात्रा करवाते हैं | यात्रा वृतांत जल्द ही..................... 


पिछले साल गुरूजी द्वारा यहीं से एक फोटो ली गयी थी जो बाद में हिमाचल ग्रामीण बैंक की कैलेंडर फोटो बनी | मेरी यह तस्वीर उनको ही समर्पित है, जिन्होंने मुझे ट्रेकिंग के सही मायने समझाए |

रास्ते में आने वाले सरे ढ़ाबे ध्वस्त कर दिए गए हैं | अब शुरुआत और अंत में ही खाने का इंतज़ाम है | रास्ते में पानी के काफी प्राकृतिक स्त्रोत हैं अपने साथ 1 लीटर की बोतल ले जाएं, काम चल जाएगा | 















यात्रा वृतांत कुछ ही दिनों में............ 

Monday 17 October 2016

करोल का टिब्बा

हेल्लो : हाँ भाईसाहब तैयार हो  
हाँजी बस साइकिल निकाल रहा हूँ 
आप भी तैयार हो जाइए 
15 मिनट में, मैं आ रहा हूँ
समय से पहुँच गया 
हमसफ़र शुभम नहा रहा था 
वैदिक मंत्र गा रहा था
पूरा पंडित है 
चोटी भी रखता है
चश्मा लगता है
टोपी पे फंसा के 
अक्सर भूल जाता है  

15 अक्टूबर 2016
सुबह 7 बजे हम निकाल पड़े 
स्कूटर पे सवार हैं 
बस स्टैंड जाना है
आज पहाड़ घूमना है 
दोनों तैयार हैं 

चंडीगढ़ 43 सेक्टर बस स्टैंड 

स्कूटर लगा पार्किंग में 
बस में चढ़ गए 
शिमला की बस है 
हमें सोलन जाना है 
सोलन से थोड़ा आगे 
चम्बाघाट उतर जाना है
100 की टिकट ली (प्रतिव्यक्ति) 
तीन वाली सीट मिली 
थोड़ी देर बाद 
बस चली 
कालका पहुंचे जाम लग गया 
सड़क पर गाड़ियों का अम्बार लग गया 
घण्टा बर्बाद हुआ 
चेहरा लाल हुआ 
4-5 श्लोक निकले 
बामुश्किल जाम से निकले 
अब रास्ता साफ़ है 
पर धर्मपुर में बस फिर रुक गई 
इसको शिमला जाना है 
ढ़ाबे पे खाना खाना है
फिर मंज़िल तक पहुँचाना है
खैर पहुंचे हम खुम्ब देश सोलन 
यहाँ पहाड़ों को देख 
मोहित हुआ मन 
थोड़ी और आगे चम्बाघाट है
वहां उतरना है
नाश्ता करना है 
फिर आगे बढ़ना है 

10 बजे चम्बाघाट पहुंचे 
सामने लक्ष्मीबाई की प्रतिमा है 
पीछे पहाड़ है 
इमारतों से लदा हुआ 
पूरा बर्बाद है 

कुछ पल सुकून के बिताए
ढ़ाबे पे चाय-परांठे खाए
100 रुपये बिल बना 
पेट लेकिन पूरा भरा


अब तैयार हैं चलने के लिए 
सामने पहाड़ है विचरने के लिए 
रास्ता मालूम किया 
बोतलों में पानी भरा 
हांजी बोतलों में पानी भरा 
बहुत जरुरी है 
रास्ते में सब सूखा है
2 लीटर हरेक लिए 
आधा दर्जन केले भी 
देख के लिए 

चलो अब हम चल दिए 
रास्ता पहले पक्का है 
फिर कच्चा है 
फिर तो है पगडण्डी 
ऊपर चढ़ते जाओ  
गीत ख़ुशी के गाते जाओ 


अब अंत है बस्ती का 
रास्ता संकरा अब मंज़िल का 
ध्यान से पहचान करना 
सीधा पहाड़ ही चढ़ना  

हम तो चल पड़े 
थोड़ी देर बाद ही खो गए 
रास्ता कहाँ है ? 
यहाँ तो जंगल ही जंगल है 
शुभम यार जाना किधर है 

बुरे वक़्त मैं गुरूजी याद आये 
फ़ोन किया गया 
और गूगल का समर्थन लिया गया 
फिर जा के अंदाज़ा लगाया 
अब सच ही बोलूंगा 
मैंने अपना रास्ता बनाया 


चलते-चलते आगे अपने रास्ते पर 
एक रास्ता और मिल गया 
यही सही है 
कचरे स्वपरूप 
पुख़्ता सबूत जो मिल गया

हाँ भाई चल अब 
ज्यादा पानी ना पी
गला तर रख़
घूँट पी नहीं 
बस मुँह में भर रख़ 

सही रास्ता है यह 
इसका एक सबूत और मिल गया 
जगह-जगह पेड़ों पर 
लाल कपडा बँधा दिख गया

बस अब क्या है 
निशान की ओर चलते जाओ 
गीत ख़ुशी के गाते जाओ 


भरी दोपहरी में
अँधेरा जंगल है
धूप नहीं आती यहाँ 
डरावना मंज़र है 
फिर तीतर की आवाज़ भी 
तेंदुए की आहट लगती है
हवा की घूँ-घूँ भी 
राक्षसी लगती है


खैर 
मुश्किल रास्ते में नहीं 
ज़ेहन में होती है 
डराती है 
धमकाती है 
पैर जकड़ती है
है पार पाना
थोड़ा हिम्मत का काम 
रखो थोड़ा होंसला 
ओर चलो सीना तान
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है 
हस के मेरी हर मुश्किल को 
दरकिनार करता है 
वो बसा है सभी में 
हैं सभी उसके 
हाथ बढ़ा मदद तो मांग 
वो सहायता करता है

है रहस्य गूढ़
समझना समझ के 
ये उलझन है ऐसी की 
उलझना सुलझ के
लीला है उसकी बड़ी ही निराली
वही है सूरज की लाली 
है पेड़ों कि हरियाली 
है वही कण कण में विद्यमान 
फिर भी 
क्यों इंसान को 
है इतना अभिमान ?
समझना है उसको 
तो समझो तुम खुद को 
वही मंज़िल है 
रास्ता भी वही है  
बस उसी को मिलता है 
जिसने दुनिया कि नहीं  
उसकी सुनी है  
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है 
पेहले भटकता है  
फिर मेरा हाथ पकड़ता है


खैर 
पहुंचे हम मंदिर तक 
वहां और यात्री मिले 
पता चला उनसे कि 
एक मंदिर और है 
थोड़ा है नीचे
मशहूर बहुत है 
वहां ही है वो गुफा 
पांडवों कि 
जहाँ बितायी उन्होंने 
घड़ियाँ वो अज्ञातवास कि 
गुफा है ये निराली 
लंबी बहुत है 
कहते हैं एक छोर है सोलन 
दूसरा पिंजौर है 



हाँ भाई,
मिल गई मंज़िल अब चलें वापिस 
हुए वहां से रुखसत 
कह खुदाहाफिस 
भटके थे थोड़ा शायद 
अभी भटकना और था 
चल पड़े गलत राह 
प्रभु का इम्तिहान 
एक और था 
राह तो ख़त्म हो गई 
आगे जा के 
भगवान ने फिर सही राह दिखाई 
सन्नाटा-ए-जंगल में 
इंसानी आवाज़ आयी   
दिख गई सही राह 
जो थी उस पार 
कुछ मुसाफिर जो उस पे 
गुज़र रहे थे
थे मशगूल 
आपस में झगड़ रहे थे 

आये जो लौट के 
फिर दुरुस्त राह पकड़ी 
फिर ऊँगली मेरे रहनुमा ने 
भी मेरी ऐसी जकड़ी  
सीधा जा के कंडाघाट उतारा 

बेबस हैं हम सब 
साजिश ये सब है उसकी 
ये जंगल उसी का 
ये ज़मीन उसकी 
उसी का दिया है
जो भी मिला है 
उसकी मर्ज़ी के बिना
कभी पत्ता भी हिला है ?

कंडाघाट से फिर 
हम सोलन पहुंचे 
खाए रसगुले और 
समोसे दबोचे 

फिर पकड़ी बस सीधा चण्डीगढ़ कि 
अभी बाकी थी एक खुराफात 
शैतानी मन कि
26 के चौक़ पे उतारने को 
जो कंडक्टर ना था राज़ी 
हम भी तो थे, थोड़े मनमौजी   
शुभम जी ने अपनी सीटी फिर बजाई
एक दम बस रुक गई 
ड्राइवर को समझ नहीं आयी 
सीटी किसने है बजाई ? 
हम तो उतर गए अपना झोला उठा के 
कंडक्टर देखता रहा 
खिड़की से मुंह उठा के 
वही है जो इन्साफ करता 
शैतानी दिमाग में ऐसे ख्याल भरता
वही जो रखता है हम सबका ख्याल 
वही जनता है सबका सूरत-ए-हाल 
वही है जो दूध का दूध 
और पानी का पानी करता है 
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है 
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है 

ना मैं पर्यटक  
ना मैं घुमक्कड़   
ना मैं मुसाफिर  
ना मैं यायावर
कौन हूँ मैं ?
क्या अस्तित्व है मेरा ?
क्या है ये धरती ?
यहाँ क्या है काम मेरा ?  
बंदा तो यही सवाल लिए फिरता है 
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है 
रहनुमा जो मेरा मेरे साथ चलता है 


Thursday 13 October 2016

श्री चमकौर साहिब यात्रा भाग-2

हमरी करो हाथ दे रक्षा  | |
पूर्ण होए चित की इच्छा  | |
तव चरणं मन रहे हमारा  | |
अपना जान करो प्रतिपारा  | |
हमरे दुष्ट सभे तुम घावो  | |
आप हाथ दे मोहे बचाओ  | |
सुखी बसे मोरो परिवारा  | |
सेवक सिख सभई करतारा  | |
(बिनती चौपाई, श्री गुरु गोबिंद सिंह )


सन 1705
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा जी (पाँच प्यारों)  से पूछा औरंगज़ेब का अंत कैसे किया जाए ? तीर से या कलम से ?
खालसा जी ने गुरुगोबिंद सिंह जी से कहा :
गुरुदेव हमने बुराई के खिलाफ अपने शस्त्रों से बहुत लड़ाईयाँ लड़ीं हैं, लेकिन इस लड़ाई का अंत आप कलम से करें |

चूँ कार अज़ हमह हीलत-ए दर गुज़शत
हलाल असत बुरदन ब-शमशीर दसत
(ज़फरनामा)
(जब किसी मुश्किल को हल करने की तमाम विधियां बिफल हो जाएं फिर हाथ में तलवार उठाना सही है)

फिर गुरुगोबिंद सिंह जी ने ज़फरनामा (विजय पत्र) लिखा | ज़फरनामा औरंगजेब को गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा फारसी में लिखा गया एक पत्र है | इस पत्र में परमेश्वर की महिमा से लेकर मुग़लों के विश्वासघातों, चमकौर की लड़ाई में मुग़लों की करारी हार और औरंगज़ेब को मिलने आने का काव्यात्मक अंदाज़ में ज़िक्र है | कहते हैं जब सिंघों ने यह पत्र औरंगज़ेब को बाबुलंद पढ़ के सुनाया तो वह कांम्प उठा और उसके बाद एक साल के भीतर ही दुनिया से रुख़सत हो गया |

बस्स एक हिन्द में तीर्थ है यातरा के लिये ।
कटाए बाप ने बच्चे जहां ख़ुदा के लिये ।
( गंज-ए-शहीदां- 117, अल्लाह यार ख़ां जोगी )

श्री चमकौर साहिब केवल एक गुरुद्वारा नहीं है | इस पवित्र स्थान पर मुख्यतः छह गुरुद्वारे हैं और इस पूरे क्षेत्र को श्री चमकौर साहिब के नाम से संबोधित किया जाता है | छह मुख्य गुरुद्वारे हैं: 
गुरुद्वारा डमडमा साहिब 
गुरुद्वारा गढ़ी साहिब 
गुरुद्वारा कतलगढ़ साहिब
गुरुद्वारा रंजीत गढ़ साहिब 
गुरुद्वारा शहीद बुर्ज भाई जीवन सिंह 
गुरुद्वारा ताड़ी साहिब  


गुरुद्वारा श्री कतलगढ़ साहिब देखने के बाद मैं गुरुद्वारा श्री गढ़ी साहिब देखने पहुँचा, जिनका नाम कच्चे किले (कच्ची गढ़ी) पर रखा गया है | बहुत ही भव्य गुरुद्वारा है | यहाँ से आप चमकौर साहिब के आस-पास के पूरे इलाके को देख सकते हैं | इसी स्थान पर वह कच्ची गढ़ी (किला) था जिसपे चढ़ कर गुरु गोबिंद सिंह जी लड़ाई देख रहे थे और मुग़ल सेना पर तीरों की बरसात कर रहे थे | उनके तीर कई हज़ार मुग़लों को चीरते हुए आर-पार हो गए |


लगभग 2 बजे मैंने अपनी दोनों बोतलों में पानी भरा और वापिस चलने को तैयार हो गया | श्री चमकौर साहिब की पवित्र धरती को प्रणाम कर मैं साइकिल पर सवार हो गया | वापसी का सफ़र मुश्किल होने वाला है यह मैं जानता था |
हे प्रभु! आज क्या खूब पाठ सिखाया तुमने
भर दी है नवीन ऊर्जा मुझमें
थकान का एहसास है
लेकिन मैं उसे महसूस नहीं कर रहा
धीरे-धीरे ही सही
मंज़िल की ओर बढ़ रहा
धूप की तपिश भी आज मीठी हो गई
साहस, शक्ति और वीरता से जो भेंट हो गई
है धर्म, बलिदान, त्याग और पूर्ण समर्पण
और ऐसे गुरुओं की महिमा भी
जिन्होंने किया सम्पूर्ण वंश अर्पण
आज पंजाब की जवानी फिर नशे में कैसे खो गई ?
धूप की तपिश भी आज मीठी हो गई
साहस, शक्ति और वीरता से जो भेंट हो गई.....


श्री चमकौर साहिब से रोपड़ पहुँचा | सिख इतिहास की वीरगाथाओं को समझने में इतना मशगूल हो गया था कि गुरुद्वारे में लंगर छकना भी भूल गया | अब ज़ोरों की भूख लग रही थी | रोपड़ से कुराली की तरफ बढ़ते हुए एक केले के ठेले पर रुका | आधा दर्जन केले खाने के बाद भूख शांत हुई |


कुराली पहुँचते-पहुँचते पसीने में तर हो चुका था | कुराली से चण्डीगढ़ (सिसवां रोड़) की तरफ़ हो लिया | कुछ दूर चलने के बाद थकान और धूप से बेहाल मैं, ये पंक्तियाँ गुनगुना रहा था :
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया
मेरे राम !
खैर इस रास्ते पे छाया नहीं है | बहुत दूर तक छाया ढूंढता रहा नहीं मिली | आखिर में एक बंद पड़ी पानी की मोटर दिखी वहां एक आम का पेड़ था जिसकी छाया देख मैं खुद को रोक नहीं पाया | साइकिल टिका के मैं तो ज़मीन पे ही लेट गया | करीब आधा घण्टा सोने के बाद होश आया | सारा पानी पी लेने के बाद फिर से चलने लगा, चण्डीगढ़ की ओर |


ये जो न्यू चण्डीगढ़ (कुराली चण्डीगढ़ रोड़ और मुल्लांपुर के आस-पास) वाला इलाका है, ये जैसे दुबई की नक़ल बनाई गई है | सबसे पहले वो दुबई वाली बिल्डिंग की नक़ल आपको दूर से ही दिख जाएगी | फिर चकाचक चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर और डिज़ाइनर स्ट्रीट लाइट्स |



हद तो तब हो जाती है जब सड़क के किनारे लगाए गए खजूर के पेड़ दिखाई देते हैं | अरे भाईसाहब हमारी नहीं तो संत कबीर जी की ही सुन लेते :
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ||


लगभग 4:30 बजे मैं हॉस्टल पहुँचा | आज का दिन बहुत ज्ञानवर्धक रहा | सिख वीरता को जानने के बाद मैं सोचता हूँ कि कैसे पंजाब नशे में डूब गया ?
जहां धर्म, बुद्धि, वीरता और शारीरिक बल की इतनी ऐतिहासिक मिसालें हैं वहां के युवा कैसे नशे कि ओर चले गए !
शायद यही सवाल इन बाबा जी के ज़ेहन में भी चल रहा है.........


यात्रा विवरण
दूरी
चण्डीगढ़ (पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, सेक्टर-12) से कुराली- 26 km
कुराली से रोपड़- 16 km
रोपड़ से चमकौर साहिब- 14 km
कुल दूरी = 56 km
आना-जाना = 112 km

कुल यात्रा खर्च

आधा दर्जन केले - 30 रुपए

इस यात्रा का पिछला भाग यहाँ पढ़ें




अगर आप भाग्यशाली हों तो श्री चमकौर साहिब में आपको पारंपरिक साज़ों पर चमकौर की लड़ाई का वर्णन भी सुनने को मिल सकता है :

ओ सिंह किले चों निकलया, फिर बड़या विच मैदान
ओह्दी चण्डी लिशकां मारदी, मारदी, ज्यों बिजली विच असमान
पये वैरी थर-थर कम्बदे, पज्जे पेडां वांगू जाण
ज्यों शेर पुख्खे विच जंगली, जंगली, पये जिदी जान बछाण

ओ वार चलावे तेग दा, ज्यों तारा टूटे असमान
ओहना वाड़ी पायी वेरीयाँ, वेरीयाँ, ज्यों मक्की कट्टे किरसान
पइयाँ मुग़लां ताईं पजदीयाँ, जुद्ध मच्या सी घमसाण
फिर कलगीधर दे लाड़ले, लाड़ले, वद-वद के तीर चलाण

कई नेज़े, बरछे चलदे, सिंह लड़दे ला के तान
जीयोंदे सिंह कदे न हारदे, हारदे, चाहे निकल जाण प्राण
फिर कलगीधर जी वेख के, थावे-थावे तीर चलाण
जो लंघ के कई हज़ार चों, हज़ार चों, सुक्के आर-पार हो जाण

सिंह अंत शहीदी पा गया, जिस छडया नई मैदान
पंज सिंह जो उसदे नाल सी, नाल सी, हो गए हस-हस के कुर्बान
फिर छड़ जयकारा गुरां ने, कम्बण ला ता सी असमान
सुन छोटा पुत्तर आ गया, आ गया, यूँ करदा आप बयान

मैं वेख शहीदी वीर दी, हूँण करनी नई है काण
मैनु आज्ञा बख्शो गुरु जी, पिता जी, चमकावां सीखी शान
ऐ कौतक दसवें गुरां दा, ज़रा तक्को नाल ध्यान
जो पुत धर्म तों वारदे, उच्ची करण धर्म दी शान

रेह्न्दे पंथ वसे मैं उजडाँ, जावां लीरो-लीर कराण
वारा जागो वाले गा के गुरु संगतां तांहि सुणांण

रेह्न्दे पंथ वसे मैं उजडाँ, जावां लीरो-लीर कराण
वारा जागो वाले गा के गुरु संगतां तांहि सुणांण

इस यात्रा का पिछला भाग यहाँ पढ़ें

     

Monday 10 October 2016

चण्डीगढ़ से चमकौर साहिब यात्रा भाग-1

कि ओ बेनगूँ असत ओ बे चगूँ
कि ओ रहनुमा असत ओ रहनमूँ

(वो निराकार है
वो रहनुमा है जो रास्ता दिखाता है; ज़फरनामा)

वही जो विद्यमान है सब में
वही जो जीवन देने वाला है
है वही प्राण हरने वाला भी
वही साक्षी है सत्य का
है असत्य रचने वाला भी
वही ले चलता है दुनिया दिखाने
है वो थकाने वाला भी
वही दिखाता है राह
है वही भटकाने वाला भी
मैंने रखा भरोसा अपने रहनुमा कि हर बात मानी
है आज ले चला मुझे वो बाहर से अंदर की ओर
क्या पता दिख जाए मुझे वो पर्म सत्य की ठौर........

देह शिवा वर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं,
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों

(हे भगवान मुझे यही वर दो की मैं कभी शुभ काम करने से मुँह न फेरूँ
मैं शत्रु का सामना करने से कभी न डरूँ और निश्चय करके अपनी जीत करूँ
तुम्हारी महिमा ही मेरा मार्गदर्शन करे और उसका गुणगान ही मेरा पर्म उद्देश्य हो
जब मरने का समय आये तो मैं रणभूमि में साहस से लड़ता हुआ वीरगति प्राप्त करूँ)
(चण्डी चरित्र उक्ति विलास-श्लोक 231, गुरुगोबिन्द सिंह, दशम ग्रन्थ)


दिसम्बर 1704 चमकौर में एक कच्चे किले में गुरु गोबिंद सिंह, पंज (पाँच) प्यारे, दो साहिबजादे (बाबा अजीत सिंह जी , साहिबजादे जुझार सिंह जी और 40 सिख  फैसला कर चुके हैं कि अब हम मुग़लों से लड़ाई करेंगे | पिछले कल जो लोग कुरान और गीता की कसमें खा कर भी विश्वासघात कर गए उन पर अब भरोसा भी कैसे करते ?
कल रात बर्फीली ठंडी सरसा नदी के किनारे मुग़लों (वज़ीर खान) तथा पहाड़ी राजाओं ने मिल के हमला किया जो पहले ही यह संधि कर चुके थे कि आनंदपुर साहिब से पलायन करते सिखों को कोई हानि नहीं पहुंचाएंगे | सरसा नदी को पार करते हुए, गुरु गोबिंद सिंह जी अपनी माता और दोनों छोटे साहिबजादों से बिछड़ गए जो बाद में एक और विश्वासघात के बाद फतेहगढ़ में मुग़लों द्वारा बंदी बना लिए गए | उसी नदी में गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा रचित बहुत सारा साहित्य भी बह गया |

अरे भाई साहब अभी मिन्नी मैराथन दौड़ के आये हो अभी साइकिल उठा कहाँ चल दिए ?
जी चमकौर साहिब जा रहा हूँ, फतेहगढ़ साहिब देखने के बाद बड़ा मन था वहां जाने का, आज सुबह दौड़ के थक तो चुका हूँ सोचता हूँ अच्छी तरह थक लूँ फिर एक साथ विश्राम करूँगा |
8 अक्टूबर सुबह करीब 9:30 बज रहे थे | सवेरे 5 बजे ही उठ गया था फिर 6 बजे मैराथन दौड़ने चला गया | 8 बजे वापिस आ के नाश्ता किया और वहीँ खाते-खाते चमकौर साहिब जाने का इरादा बना लिया | अब साइकिल पे सवार हो चुका हूँ और सोच रहा हूँ उस दिसम्बर 1704 की सर्द रात के बारे में जिसमें गुरु गोबिंद सिंह जी ने सरसा नदी पार की थी  क्या वे लोग भी थके थे नदी को पार करते हुए ?

चमकौर के मिट्टी के किले के बाहर मुग़ल फ़ौज घेरा बंदी कर चुकी है | एक तरफ 48 हैं और दूसरी तरफ 10 लाख की फ़ौज ! 

किले के अंदर से गुरु की आज्ञा पा पाँच-पाँच के जत्थे में सिंह मुग़लों से लोहा लेने लगे | 

ज़ज़्बा-ए-सिंह देखते ही बनता होगा
वो गुरु का सिख जब शस्त्र लिए किले से निकलता होगा 
खैर जान की मुग़ल तब मांगता होगा 
जब एक सिंह एक वार से दो 
और दो वार से चार
टुकड़े जो उनके करता होगा  
एक सिंह जब सवा लाख पे भारी पड़ता होगा
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 

आकाश सत श्री अकाल के जैकारों से फट पड़ता होगा
एक सिंह वीरगति को जब प्राप्त करता होगा 
एक के जाते ही दूसरा सिंह जब मैदान-ए-जंग में उतरता होगा 
तब कलेजा भय से मुग़लों का थर-थर करता होगा 
वो तलवार से मुग़ल फ़ौज को काटता हुआ 
जब आगे जो बढ़ता होगा 
तब वो दृश्य-ए-जंग देखते ही बनता होगा 
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 
वो दृश्य भी क्या देखते ही बनता होगा 

तपते सूरज का मज़ा लेते हुए मैं चण्डीगढ़ से मुलांपुर होते हुए कुराली रोड पर पहुँच गया | आज दौड़ लगाने के कारण गला कुछ ज्यादा ही सूख रहा था | खैर मैं तो यह सोच रहा था कि जब 10 लाख कि फौज़ का सामना 48 सिख कर रहे थे तो क्या उनका गला भी सूखा होगा ?


निःसंदेह नहीं, नहीं सूखा होगा | जहाँ गुरु गोबिंद सिंह जैसे संचालक खड़े हों वहां खौफ तो सिर्फ शत्रु ही खा सकता है !
” चिड़ियों से मैं बाज़ लडाऊ, गीदड़ों  को  मैं  शेर  बनाऊ
सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ,”

कुराली से रोपड़ कि तरफ हो गया | कुराली फ्लाईओवर पे बहुत ट्रैफिक थी | बचते-बचाते फ्लाईओवर के पार पहुँचा | किले से निकले घोड़े पे सवार हुए सिंह भी मुग़लों कि फौज़ को तलवारों से काटते हुए उनके पार निकल जाते होंगे और घोड़े को पुनः मोड़ कर फिर से उनके बीच जा वीरता से लड़ते होंगे | 
रोपड़ पुलिस लाइन्स वाली ट्रैफिक लाइटों से चमकौर साहिब के लिए बाहिनी ओर मुड़ गया | कुछ दूर आगे रसूलपुर से फिर बायीं ओर मुड़ गया ओर नीलों-रोपड़ कैनाल रोड पे चलने लगा | अब रास्ता सीधा है |

आज्ञा दो पिता जी अब मैं रण में जाऊं 
आज मौका शुभ है 
मैं सिखि का मान बढाऊँ  
लिया लगा गले से 
ओर दिया शस्त्र पकड़ा 
एक वार में दो टुकड़े ओर दो में करते चार 
देख मुग़ल सेना में मचा भीषण हाहाकार 
घेर लिया है सिंह को 
डाल घेरा चारों ओर
आओ पास मेरे 
पकड़ो साहस कि डोर 
ललकारता है बाबा अजित सिंह 
करके गर्जन घनघोर


भेड़ों से कभी सिंह का शिकार होता नहीं   
मुग़ल सेना से भी वैसे ही वार होता नहीं
कायरता से ही तीरों से 
हुआ सिंह शहीद 
ललकार के बाद भी
आया न कोई मुग़ल करीब 
देख शहीदी बेटे कि 
लगाया सत श्री अकाल का जयकारा
गूंजा गर्जन से है 
सकल जहान सारा 

सुन शहादत बड़े भाई कि 
बाबा जुझार आया 
मुझे आज्ञा दो पिता जी  
धर्म ने है अब मुझे बुलाया 
रण मैं लड़ा बाबा जुझार यूँ 
बन बाबा अजीत का अवतार 
फ़र्क दोनों मैं क्या 
रही न मुग़ल सेना पहचान 


जौहर रण विद्या का ऐसा है दिखलाया 
बौखलाई मुग़ल सेना बोली 
लौट बाबा अजीत आया 

शहीद हुआ जब सिंह वो 
छाती से बरछा आर-पार 
घायल होते हुए भी 
20 और गया वो मार    

सिख ने मुंह नहीं फेरा
जब भी धर्म ने है पुकारा  
महान गुरु गोबिंद सिंह सा  
हुआ सरवंशदानी न कोई दोबारा

गुरुद्वारा श्री कतलगढ़ साहिब के सामने साइकिल लगा दी | ये गुरुद्वारा उसी जगह बना है जहाँ बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह जी मुग़लों से लडे थे |


बाबा जुझार सिंह जी कि शहादत के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए | रात घिर आयी थी | "आप पत्थर को भी सिंह बना सकते हैं हमें आपके जैसा गुरु नहीं मिलेगा", ये कहते हुए पाँच प्यारों ने गुरु को रण में जाने नहीं दिया | उन्हों ने गुरु गोबिंद सिंह जी को किले से चले जाने के लिए कहा ताकि वह फिर से फौज़ तैयार कर सकें | गुरु गोबिंद सिंह जी ने चुपचाप जाना ठीक नहीं समझा | उन्हों ने शंख बजाया और एक ऊँचे स्थान पे चढ़ कर तीन बार ताली बजाई और कहा: पीर-ए-हिन्द रहावत (हिन्द का पीर जा रहा है )| 


लगभग 12:30 तक मैं चमकौर साहिब में अपनी हाज़िरी लगा चुका था |यहाँ का कण-कण वीरता का साक्षी है और गुरूद्वारे में लगे चित्र व अस्त्र-शस्त्र देख कर मन गदगद हो उठता है और आँखें नम हो जाती हैं |
धन्य हो ये धरती 
धन्य हो वो पिता 
धन्य हो वो माता 
जिनके बेटे पीढ़ियों को जीना सीखा गए........    

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहुँ न छाडे खेत 
(संत श्री कबीर दास जी, गुरु ग्रन्थ साहिब)

(वही शूरवीर है जो धर्म के लिए लड़ता है 
अपना अंग-अंग कट जाने पर भी वह मैदान नहीं छोड़ता ) 

अगले भाग में पढ़िए गुरु गोबिंद सिंह जी का मुग़लों को जवाब 
और चमकौर साहिब से चण्डीगढ़ का सफ़र.....................

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