Wednesday 27 July 2016

नीलकण्ठ महादेव लाहौल यात्रा भाग-1 (चंडीगढ़ से लाहौल)

गुरूजी: लाहौल स्पीति चल रहे हैं  |
मैं: जी ठीक है आ जाऊँगा |
गुरूजी: कल शाम तक मण्डी पहुँच जाना |
16 जुलाई की शाम को बस इतनी ही बात हुई और मैं 17 जुलाई की सुबह 9 बजे की बस में चंडीगढ़ से मण्डी के लिए रवाना हो गया | झोला तो 5 दिन पहले ही पैक कर लिया था और चंडीगढ़ से गुरूजी द्वारा निर्देशित टेंट भी खरीद लिया था | चंडीगढ़ से मण्डी पहुँचने में 6 घंटे लग गए |
मण्डी बस स्टैंड पे गुरु जी पहले से ही इंतजार कर रहे थे | घर पहुँच कर सारा सामान व्यवस्थित तरीके से पैक करने के बाद हमारे पास दो बैग थे जिनमें एक टेंट, दो स्लीपिंग बैग, कपडे, खाने पीने का सामान इत्यादि था | कुल वजन करीब 30 Kg तक का होगा |
मण्डी जैसे ऐतिहासिक शहर के तो क्या कहने | मांडव ऋषि जी के नाम पर पड़ा नाम मांडव नगरी हो या काशी की तरह नदी(व्यास) के किनारे बसे होने और धार्मीक स्थल एवं मंदिरों के होने से पड़ा नाम छोटी काशी | कुछ प्रमुख मंदिर जैसे कि: भूत नाथ मंदिर, त्रिलोकी नाथ मन्दिर, राजा माधव मंदिर, श्याम काली मंदिर, भीम काली मंदिर, पंचवक्त्र महादेव, अर्धनारिश्वर मंदिर इस स्थान के धार्मिक पहलू को उजागर करतें हैं | मण्डी शहर सिल्क रूट के जमाने से आज तक अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोय हुए है |
शाम को सुहाना मौसम, हल्की हल्की फुहारें और हरियाली से भरपूर घण्टाघर के नीचे बैठ के लेमन टी की चुस्की के साथ सामने प्रकृति के अदभुत नज़ारों का आनंद तन, मन और आत्मा सब प्रसन कर देता है |
खैर मण्डी में अधिक समय रुकना न हुआ | 17 कि ही रात को करीब 11:30 बजे हम मण्डी बस स्टैंड पे पहुँच गए | बस स्टैंड पर JEONET का फ्री WIFI मिला और मेरे लिए तो ये DEVELOPMENT का जीता जागता सबूत था |
हमें HRTC की बस का इंतज़ार था; जो कि धर्मशाला से चल कर मण्डी और मण्डी से केलांग (त्रिलोकीनाथ) जाने वाली थी | बस में होने वाली भीड़ से गुरूजी मुझे पहले ही अवगत करवा चुके थे | बस के आते ही मैं बस पे टूट पड़ा और अपने लिए और गुरूजी के लिए सीट रिज़र्व कर ली; हालाँकि बस में बस दो ही सीट खली थीं |
सुबह लगभग 3:30 बजे बस मनाली पहुंची | मनाली में बस में नेपाल से आये बहुत से प्रवासी मज़दूर चड़े, जो की लाहौल स्पीति में मज़दूरी और खेती का काम करने के लिए जा रहे थे | इतनी ठण्ड में सिर्फ टी शर्ट जीन्स पैंट और Relaxo की चप्पल पहने वे लोग बस में नीचे फर्श पे ही बैठ गए |
मेहनत की खुशबू से भरपूर उनके शरीर बस में बैठे यात्रियों के नाक के बाल जला रहे थे | मेरे साथ बैठे यात्री ने तो यह कह कर खिड़की खोल दी की ठंडी हवा सह लूंगा मगर यह खुशबू बर्दाश्त के बाहर है | खैर बस चली और कुछ देर में सबके नाक अभ्यस्त हो गए |
रोहतांग पास पार करते समय सूर्य उदय हो रहा था और वो दृश्य बहुत ही रमणीय था |
कोकसर पहुँच कर बस रुकी और हम फिर एक ढाबे पे जा कर लेमन टी का मज़ा लेने लगे | रोहतांग के इस ओर मानसून नहीं पहुँचता ओर बारिश भी बहुत कम होती है, होती है तो अक्टूबर नवम्बर से बर्फबारी जिसके कारण मई जून तक रोहतांग पास बंद रहता है | रोहतांग पास के एक तरफ कुल्लू जिला है और दूसरी तरफ लाहौल स्पीति |
लाहौल और स्पीति दो अलग अलग जगाहें हैं | कोकसर पुल पार करके टी पॉइंट आता है, दाहिना रास्ता हरेभरे लाहौल की ओर और बाएँ तरफ का रास्ता स्पीति के ठंडे रेगिस्तान की ओर | हम लाहौल की और चल पड़े |
गुरुजी रिसोर्सफुल पर्सन हैं | उनके एक मित्र श्रीमान नवीन जी के घर पर रहने खाने का प्रबंध वो पहले ही कर चुके थे; मुश्किल थी तो उनके गांव सुमनम तक पहुंचना|
तांदी पुल पे हम दोनों बस से उतर गए| सुबह के 9 बज रहे थे | तांदी वही स्थान है जहां चन्द्रा नदी भागा नदी से मिलती है और चंद्रभागा बन जाती है | यही चन्द्रभागा जम्मूकश्मीर में जा के चेनाब बन जाती है | गुरूजी संगम स्थल की मिट्टी लेने के लिए पुल से नीचे उतर गए और अपनी पर्सनल कलेक्शन के लिए सैंपल जमा कर लिया |


10 बजे तक गाड़ी का इंतज़ार करने के बाद हमने पैदल चलने का निश्चय किया |1:30 घंटे में 3 km पहाड़ चढ़ने के बाद हम कहीं हमारे होस्ट श्रीमान नवीन जी के घर सुमनम पहुंचे |
आप सभी ने पहाड़ी पर बसे हुए एक ऐसे घर की कल्पना की होगी जहाँ ठंडी हवाएँ चलती हों, आंगन में धूप और आस पास हरियाली, क्यारी में खिले फूल और बागों में पेड़ों पे लगे हरे से लाल होते सेब, दोमंज़िला घर की ऊपर वाली खिड़की से दिखते ऊपर ऊँचे पहाड़, झरने और नीचे सुन्दर सा गांव; उसी खिड़की के सामने बैठ कर चाय की चुस्की के साथ मनपसंद किताब पढ़ने का मज़ा; यह सब मात्र कल्पना नहीं हकीकत है जी हाँ आर्किटेक्ट नवीन जी के घर पर आपको यह सारी सुविधाएं निशुल्क मिल जाएँगी बस आपके पास भी कोई  "रिसोर्सफुल पर्सन"  होना चाहिए   |


अब आपका परिचय गुरूजी के कॉलेज के दोस्त नवीन जी से करवातें हैं | बन्दा एक दम गाउ है | शांत और एकाग्र, बैंगलोर में काम करते हुए भी लाहौल को नहीं भूले हैं | नाजाने कैसे हालातों का सामना करते हुए इन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की होगी | लाहौल जैसे दूरदराज क्षेत्र से निकल कर बैंगलोर में करियर की ऊंचाइयों को छूना बहुत ही सराहना और साहस का काम है |
खैर 18 जुलाई को नवीन जी के गांव सुमनम पहुँचने के बाद हमने रेस्ट ही की, उनके घर की खिड़की में खड़ा हो के पहाड़ों को अपनी कामचलाऊ दूरबीन से देखते हुए, प्रकृति के अदभुत सौन्दर्य को निहारते हुए |


Sunday 24 July 2016

रोहताँग पास

बर्फ़ की जमी हुई तह के पार्श्व में
सुलग रही है आग
स्वाद में रूपायित हो रहा है सौन्दर्य
भूने जा रहे हैं कोमल भुट्टे।
हवा में पसरी है
डीजल और पेट्रोल के धुयें की गंध
लगा हुआ है मीलों लम्बा जाम
आँखें थक गई हैं
ऐसे मौके पर कविता का क्या काम?
किसी के पास अवकाश नहीं
हर कोई आपाधापी में है
बटोरता हुआ
अपने - अपने हिस्से का हिम
अपने - अपने हिस्से का हिमालय.
 -सिद्धेश्वर सिंह 


मैंने पूछा, "गुरूजी कुछ समय पहले रोहताँग कैसा दिखता था"?
उनका जवाब ऊपर लिखी सिद्धेश्वर जी कि कविता से एकदम  मिलता था |
मैं पहली बार रोहताँग पास को पार कर रहा था और गुरूजी पैंतीसवीं बार |
खैर किसी ने सुप्रीम कोर्ट के जज को मन माफिक कीमत पे सामान दिया और जज के विरोध करने पर धमका भी दिया कि हमारा इलाका है, "लेना है तो लो वर्ना हम पीट भी देते हैं" |
सुना है कि 3 दिन बाद रोहताँग से सारे ढाबे दुकाने साफ़ हों गईं और रोहताँग पास पर जाने वाली गाड़ियों कि संख्या को लेकर NGT का आदेश भी आ गया |
चलो जो भी कारण रहा हो रोहताँग का तो भला हो गया, अब न जाम लगता है, न प्लास्टिक कि गंदगी बिछी है; कुछ है तो बस प्राकृति का सान्निध्य |

सुबह सूरज निकल रहा था, करीब 6:30 बजे का समय होगा, रोहताँग पास कि बलखाती हुई सड़क पर HRTC कि बस (8623) में बैठे हम, कैंची मोड़ पे मोड़, चढाई पे हांफती बस कि आवाज़ और प्राकृति के अदभुत सौंदर्य का नज़ारा देखते हुए, बादलों को नीचे छोड़ धीरे धीरे बढे जा रहे थे |



ऊँचे पहाड़, इतने ऊँचे कि बस कि खिड़की में से मुंडी निकाल के भी पुरे नज़र नहीं आये, उन पर बिछी हरी घास कि चादर और उस पर बिखरे हुए गुलाबी, लाल, पीले, नीले और बैंगनी फूल, कई जगहों से बहते हुए झरने, ऐसा सुन्दर और अदभुत नज़ारा मन मोह लेता है |

रहला से मढ़ी और मढ़ी के बाद रानी नाले को पार कर रोहताँग टॉप से होते हुए कोकसर तक रोहताँग पास ज़मीन से उठ कर बादलों से ऊपर जा कर फिर नीचे उतर आता है | रोहताँग टॉप पर 3978 m कि ऊंचाई पे चलती बस और संकरी सड़क से नीचे कि ओर देखने पे तो बस बादल ही दिखाई देते हैं |
रोहताँग पास सर्दियों में 30-40 फुट बर्फ़ के नीचे दबा रहता है | जून से नवम्बर तक  खुलने वाला ये रास्ता हिमाचल के कुल्लू जिले को लाहौल-स्पीति जिले से जोड़ता है | रोहतांग पास के दोनों ओर कि संस्कृति, सभ्यता और वनस्पति एक दम भिन्न है |
रोहताँग पास कि उत्पत्ति को लेकर भी दोनों ओर के लोगों कि अपनी अपनी मान्यताएं हैं |


कोकसर पहुँचने पर बस रुकी | यहाँ बहुत सारी दुकानें और ढाबे हैं और एक दुकान पे जा कर हम भी लेमन टी का मज़ा लेने लगे और मैं गुरूजी के अनुभवों में से ज्ञान निचोड़ने लग गया | 

Monday 11 July 2016

चंडीगढ़ से सरस्वती उदगम स्थल,आदि बद्री धाम ,केदारनाथ मंदिर, और फिर वापिस चंडीगढ़ (एक ही दिन में )

हे शारदे मां, हे शारदे मां
अज्ञानता से हमें तार दे मां
तू स्वर की देवी है संगीत तुझसे,
हर शब्द तेरा है हर गीत तुझसे,
हम हैं अकेले, हम हैं अधूरे,
तेरी शरण हम, हमें प्यार दे मां...........
स्कूल के समय में यह प्रार्थना कई बार अर्धनिद्रा में सुबह की सभा में गाई थी | लेकिन सरस्वती माँ को अर्पित यह प्रार्थना दीवार पे लगी चार हाथों वाली सरस्वती माता की तस्वीर तक ही सीमित थी जो एक हाथ में माला, एक हाथ में वेद पुराण और दो हाथों से वीणा बजाते हुए संसार को ज्ञान बाँट रहीं हैं | खैर यह तो रही बच्चपन की बात, बड़े होते होते तो यही सीखा की अब सरस्वती मैया भी विलुप्त हों गईं हैं और उनके साथ इस देश से ज्ञान भी |
एक दिन गुरूजी की वेबसाइट पे सरस्वती उदगम स्थल के बारे में पढ़ा तो खुद जा कर तथ्य जानने परखने की इच्छा हुई |
चंडीगढ़ के सेक्टर 12 से सरस्वती उदगम स्थल, आदि बद्री गांव पानीवाला, यमुना नगर, हरियाणा लगभग 87 km है | इतनी दूर एक दिन में आना जाना करने के लिए हिम्मत जुटाने में मुझे लगभग 2 घंटे लग गए |
9 जुलाई दिन शनिवार को सुबह 4 बजे ही आँख खुल गई | भगवान की ही मर्जी होगी जो इतनी जल्दी उठ गया | पहले ख्याल आया की आस पास घूम आता हूँ फिर सोचा की अगर घूमना ही है तो आज सरस्वती मैया के पास ही चलते हैं | सुबह लगभग पौने 6 बजे मैं हॉस्टल से निकल गया | मोबाइल में बैटरी 35% थी, इसलिए मैप वगैरा भी चालू नहीं किया | इस यात्रा का प्रोग्राम अचानक जो बना था तो मोबाइल भी चार्ज नहीं कर पाया, शुक्र है कैमरे की बैटरी चार्ज थी |

चंडीगढ़ से पंचकूला पहुंचा | पंचकूला पहुँचने तक सूर्य देव प्रकट हो चुके थे | पंचकूला में घागर नदी पे बने पुल को पार करके NH 7 पे चलने लगा |

सूर्योदय पंचकूला

पंचकूला से रामगढ और रामगढ से रायपुररानी की ओर हो लिया |
रायपुररानी पहुँच के State Highway 1 पकड़ लिया | State Highway 1 पर चलते हुए ठीक 8 बजे नारायणगढ़ पहुँच गया | सुबह के ठंडक भरे मौसम और कम ट्रैफिक के चलते दो घंटे में लगभग 50 km आ गया था |

नारायणगढ़
State Highway 1 पे चलते हुए अब नारायणगढ़ से सढौरा की ओर चल पढ़ा | अब रास्ता खस्ता हाल था | साइकिल सम्भालना मुश्किल हो रहा था और ट्रैफिक भी बढ़ गया था | नारायणगढ़ से बहार निकलने पर रास्ता ठीक हो गया, शायद सड़क बन रही है अभी |


पॉपुलर के पेड़ सढौरा से तेवर सड़क पे |


सढौरा पहुँचने पर पानी पिया और रास्ते के बारे में लोगों से जानकारी हासिल की | सढौरा से तेवर की ओर चल पड़ा | रास्ता अब सुनसान हो गया था | दोनों ओर लगे पॉपुलर के पेड़ रास्ते को ऐसे ढक लेते हैं कि जैसे किसी सुरंग में चल रहे हों | कुछ और दूर जाने पर एक टूटीफूटी दुकान पर नाश्ता करने रुका | बेचारे के पास उबले हुए चने के सिवाए कुछ नहीं था, वो भी शायद रात के ही बचे थे |

 टूटी फूटी दूकान और उबले हुए चनों का नाश्ता |

तेवर पहुँच कर एक शख्स ने मुझे गलत रास्ते पे सीधे सुल्तानपुर कि ओर बढ़ा दिया | हालाँकि तेवर से काठगढ़ होते हुए पानीवाला के लिए सीधा रास्ता भी है |
लगता है भगवान किसी न किसी रूप में आ कर मुझे भटका कर मेरी खूब परीक्षा लेना चाहता है अब चाहे वो मणिमहेश यात्रा में धनछो पे मिले उस दूकानदार के रूप में हो या तेवर में मिले इस शख्स के रूप में | खैर कभी नकारात्मक सोच को अपने ऊपर हावी न होने दिया |
तेवर से सुल्तानपुर और फिर सुल्तानपुर से काठगढ़ त्रिकोण बनाते हुए पहुंचा |
काठगढ़ से पानीवाला और अपनी मंज़िल सरवती उदगम स्थल पहुंचा | गूगल मैप पे जो यात्रा 86 km कि थी मेरे लिए तो वो 101 km कि हो गई थी |


सरस्वती उदगम स्थल |

लगभग 10:30 बजे मैं अपनी खोज स्थल पे पहुँच चुका था |



नासा ने कहा है भाई इसरो ने माना है और हमारी तो मैया हैं | भाई सरस्वती माता वाकई में यहीं से निकलती हैं और आज भी जीवित हैं | जल्दी जा के आचमन कर लो और ज्ञान पा लो | सरस्वती मैया के जल से हाथ मुँह धो के और आचमन करके हमने तो ज्ञान का वरदान मांग लिया | आस पास के परिवेश को गौर से देखने पे किसी बड़ी नदी के बहने के सबूत भी मिल गए |

पत्थर पे बने निशान झूठ नहीं बोलते | गुरूजी ने भी यही निष्कर्ष निकाला है |
खैर सरस्वती मैया से मिलने के बाद, थोड़ा और आगे आदि बद्री धाम भी जा के हाजरी लगा आये और साथ ही में केदारनाथ मंदिर में भी माथा टेक आये |

आदि बद्री धाम

केदारनाथ मंदिर
दोनों मंदिरों के बीच सौम्ब् नदी बहती है | मंदिर के सामने एक दीवार है नदी के काटने से बनी हुई | अगर गुरूजी साथ होते और चंडीगढ़ वापिस जाने का इरादा न होता तो जरूर उस दीवार कि चढाई में हाथ आज़माता | खैर अकेले में ज्यादा खतरा भी मोल नहीं लेना चाहिए |

सौम्ब् नदी और चट्टानी दीवार |
मंदिर से वापिस आते समय भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा खोजे गए बौध धर्म के अवशेष देखने अजायबघर गया | ऐसा अजायबघर है यहाँ कि पुरातन अवशेष बाहर खुले में पड़े हैं और अंदर कमरों में बस चित्र लगा रखे हैं | भाई पुरतनविभग वालों अगर ठीक से संजोना नहीं था तो निकाला क्यों ? | लगता है पुरातन विभाग का यह मानना है कि जिन अवशेषों को हजारों हजार साल कुछ नहीं हुआ उनको अब क्या होगा, "रहने दो खुले में" | अजायबघर कि स्थिति देख कर खुदाई स्थल तक जाने कि इच्छा नहीं हुई | वैसे यहाँ तीन खुदाई स्थल हैं जहाँ से यह सारे अवशेष एकत्र किये गए हैं |
खुले में पड़े बोध धर्म के अवशेष |
किसी भी यात्रा का सबसे मुश्किल काम होता है वापिस जाना | दोपहर 2 बजे में सरस्वती माता को प्रणाम कर चंडीगढ़ के लिए निकल पड़ा | सही रास्ता देखा नहीं था तो जहाँ से आया था वहीँ से जाना ठीक समझा |
सबसे पहले तो सुलतानपुर पहुँच कर बनाना शेक के तीन गिलास पिए | भाई सुबह से बस चने खाए थे और भूख तो जोरों कि लगी थी |
सुल्तानपुर से तेवर और तेवर से सढौरा भरी धूप से लड़ते हुए पहुंचा |
आषाढ़ कि धूप और जेठ कि धूप का फर्क पता चल गया | खैर अकेली धूप कम थोड़ी न थी कि सढौरा के पुल के पास टायर पंचर हो गया |
मेरी हीरो हॉक का पंचर टायर |


 मैं भी धूप में पागल ही हो चुका था और अब साइकिल हाथ में लिए चलने लगा | वापिस 2 km जा के पंचर लगवाने से अच्छा है कि आगे ही बढ़ता रहूँ यही सोच के चलता रहा पैदल  |
लगभग 6 km चलने के बाद पंचर कि दूकान मिली और मेरी जान में जान आई | वैसे मैंने तो मन बना लिया था अगर नारायणगढ़ तक चलना पड़े तो मैं चला जाऊंगा |

पंचर लगने वाले फरिशते अपने बच्चे के साथ जो कि बड़े शोंक से काम सीख रहा है |
पंचर मूल्य सिर्फ 10 रुपए |
फिर से साइकिल पे सवार होकर बहुत सुकून मिला |
मकेनिकल इंजीनियर हूँ, पंचर लगाना जनता हूँ, सामान भी है पंचर लगने का, पर साथ कौन लेके जाये, खामखाह इतना बोझ क्यों ढोऊँ | इस यात्रा पे तो मैं कुछ लेके भी नहीं गया था बस मोबाइल, कैमरा, 200 रुपए और 2 लीटर पानी |

नारायणगढ़ पहुँच के फिर रायपुररानी कि ओर हो गया | बीच में एक जगह जूस पीने रुका |
जूस पीने के दौरान का फोटो साइकिल के साथ |
रायपुररानी से पंचकूला और फिर पंचकूला पहुंच के पंचकूला कि सड़कों में खो गया | पूछ पूछ के बड़ी मुश्किल से फिर से सही रास्ते पे आया और इस चक्कर में फिर से 6-7 km फालतू चलना पड़ा |
खैर सुबह 6 बजे कि शुरू हुई 206 km कि यात्रा शाम 6:30 बजे ख़त्म हुई |
वापिस हॉस्टल पहुँच के वॉलीबॉल खेलने लग गया |
इस तरह मेरी यह सरस्वती खोज यात्रा सम्पूर्ण हुई |   

Tuesday 5 July 2016

"मणिमहेश" ,"द चम्बा कैलाश" भाग-2

उचेयाँ कैलाशा शिव मेरा बसदा 

कुन वो ग्लांदा गौरां नी बसदी

ऊँचे कैलाशों में मेरे भोलेनाथ बस्तें हैं

और कौन कहता है कि उनकी प्रकृति (पार्वती जी) पहाड़ों में नहीं बस्तीं |

भोलेनाथ और पार्वती जी के संवाद पे केंद्रित यह पहाड़ी लोक गीत की पंक्तियां इस बात को तो बिलकुल स्पष्ट कर देतीं हैं कि प्रभु और उनकी प्रकृति दोनों अभिन्न हैं इसका एक उदाहरण गौरीकुंड के पास पत्थर पर उगे फूलों का भी दिया जा सकता है कि कितना भी बीहड़ क्यों न हो जीवन (प्रकृति) हर जगह पनपता है |
दूसरा उदाहरण उन खास शख्सियत का है जिसका जिक्र भाग 1 में किया था | गुरूजी तो पहाड़ों में वैसे ही घूमते रहते हैं जैसे संत महात्मा मोक्ष की खोज में | जिस पहाड़ के बारे में किसी ने सुना भी नहीं होगा वह भी उन्होंने 3 बार तो चढ़ा ही होगा | शायद उनकी इसी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उनको वैसे ही धर्मपत्नी प्रदान की है | दोनों मियां-बीवी बीहड़ों में ऐसे घूमते हैं जैसे अपने घर के आँगन में टहल रहे हों |
गुरु जी ने उनकी पत्नी श्रीमती डा० कमल प्रीत जी के साथ चलने के बारे में पहले ही बता रखा था | द्रमण में दोनों से मिलना हुआ | पूरी यात्रा के दौरान डॉक्टर साहिबा के माथे पे थकान से शिकन तक नहीं आई, कभी गुरु जी के आगे कभी पीछे डंडा पकडे मुस्कुराती हुईं चलती रहीं | सख्तजान पहाड़ी लड़की के आगे तो हिमालय भी नतमस्तक है |
यही बात ऊपर लिखे लोकगीत के स्थायी अन्तरे से भी साबित हो जाती है, जो की इस प्रकार है :
हुंण वो कताईं जो नसदा वो धुडुआ
बापुएं लड तेरे ओ लायी
हे भोलेनाथ अब कहाँ भागते हो
मेरे पिताजी ने मुझे आपके साथ जन्म-जन्मांतर के बंधन में बांध दिया है |( -पार्वती जी )
चलिए अब यात्रा पे आते हैं | मणिमहेश पहुँच कर एकांत में भोलेनाथ जी के आगोश में बैठा मैं गुरूजी और साथियों कि फ़िक्र कर रहा था | मणिमहेश में घंटा भर इंतज़ार करके मैंने नीचे जाने का निर्णय किया | सोचा कि सही रस्ते से नीचे जाऊंगा तो गुरूजी कहीं न कहीं मिल ही जायेंगे | खैर मैंने नीचे उतरना शुरू किया |


मणिमहेश मंदिर

मंदिर से नीचे गौरीकुंड तक तो नाक कि सेध में ही उतर गया | गौरीकुंड से थोड़ा आगे एक टेंट लगा था | वहां सिर्फ एक आदमी था; उससे साथियों के बारे में पूछा मगर कोई सकारात्मक जानकारी नहीं मिली | उसने मुझे रास्ते के बारे में यह जानकारी दी कि, आगे जा के दो रास्ते हो जाएंगे एक ऊपर कि तरफ ग्लेशियर से हो के जाता है जो कि अभी बंद है और दूसरा नीचे कि तरफ भैरो घाटी से | उसे अलविदा कह कर मैं चल पड़ा|

जहाँ दोनों रास्ते अलग हुए वहां नीचे कि ओर हो गया | उसी रास्ते  पे बढ़ते बढ़ते काफी नीचे आ गया | धनछो खड़ कि आवाज़ दहाड़ कि तरह सुनाई दे रही थी | वो इलाका नीचे होने के कारण, अँधेरा और धुंध भरा था | मैं एक चट्टान पे जा के रुक गया, आगे रास्ता नहीं था, या शायद; था भी तो मुझे दिखाई नहीं दे रहा था| मैं तो चट्टान के छोर पे खड़ा था और आगे कुछ भी नहीं, सोच रहा था कि अगर एक कदम भी आगे बढ़ा तो नीचे खाई में न गिर जाऊँ | संकरी सी जगह पर कुछ देर सोच विचार करके मैंने पीछे हट के ग्लेशियर वाली तरफ से जाने का निश्चय किया|वापिस ऊपर चढ़ के ग्लेशियर वाले रास्ते पे चलने लगा |

ग्लेशियर तक पहुँच कर तो जान हलक में आ गई|करीब 100m लम्बी बर्फ़ की पट्टी थी; तीखी ढलान और बर्फ़ भी भुरभुरी लेकिन परत काफी मोटी थी |मैंने हाथों में दो नुकीले पत्थर पकड़ लिए जिसका इस्तेमाल कुल्हाड़ी की तरह करते हुए मैं पकड़ बनता | पैरों से बर्फ़ कुरेद कुरेद के एक एक कदम बढ़ा के आगे बढ़ता | उस समय तो वो कहावत कि, "दूसरा पांव तब उठाओ जब पहला अच्छे से टिक जाए " मेरा जीवनमूलाधार थी |

The tiny black spot you see towards left, between the glacier and blue tent is Sourabh. While we approached Sundrasi, he was coming back and was trying to negotiate his way through this tricky snow slope.गुरूजी द्वारा लिया गया ग्लेशियर के साथ मेरा चित्र |


"जल्दबाजी मत करना, अच्छे से पकड़ बनाना और धीरे धीरे आगे बढ़ना" मन ही मन यह मंत्र दोहरा रहा था | जानता था, एक गलत कदम और मैं धनछो खड़ में | ग्लेशियर को पार करते समय सिर्फ सामने कि तरफ देखता रहा शायद नीचे देखता तो डगमगा के अस्थिर हो जाता | धीरे धीरे मैंने ग्लेशियर को पार किया | उस पार पहुँच कर जान में जान आई |
पार पहुँचने तक मेरी उँगलियाँ ठण्ड से जम चुकीं थीं | फूंक मार मार के उँगलियाँ थोड़ी गरम कीं और खून का दौरा फिर से शुरू हुआ तो उस समय जो पीड़ा कि अनुभूति हुई वो कुछ ऐसे थी जैसे किसी ने उँगलियों के छोर पे सुइयां चुभो दी हों | कुछ देर बाद सब ठीक हो गया |
मैंने नीचे उतरना जरी रखा | कुछ घुमावदार मोड़ों के बाद मुझे 4 लोग दिखाई दिए; दूर से ही जान गया था कि मेरा ही इन्तजार कर रहे हैं |उनको देखते ही मैंने दौड़ लगा दी जैसे बिछड़ा बच्चा अपनी माँ से मिलने को दैडता है | फिर से मिल कर और सबको सुरक्षित देख कर मैं खुश था और बाकि सभी मुझे देख कर |
गुरूजी और साथी सही रास्ते से चढ़ते हुए हड़सर से धनछो और फिर धनछो से सुंदरसी तक पहुँच कर अपनी पहले दिन की चढ़ाई समाप्त कर चुके थे |


सुंदरासी में एक टेंट में डेरा जम चुका था | मैंने भी अपना सामान वहां रखा और बिस्तर पे लेट गया | रात को पहाड़ी आलू की सब्जी और रोटी खा के हम सब लेट गए |
सुबह करीब 6:30 बजे फिर से मणिमहेश तक जाने का सफर शुरू किया | कुछ जरुरी सामान लेके और अपने बैग वगैरा सुंदरासी टेंट में छोड़ हम भोलेनाथ के दर्शन करने निकल पड़े |
कल शाम को ग्लेशियर पार करते करते मैंने यह कसम खा ली थी कि आज के बाद हमेशा सबसे पीछे चलूँगा अतः मैं सबसे पीछे चलने लगा | गुरूजी सही रास्ते से ले के जा रहे थे | चलते चलते चट्टानों के बीच से रास्ता आया और चढ़ने के लिए पैरों के साथ साथ हाथों का भी प्रयोग करना पड़ा | वह चट्टान थोड़ी उभरी हुई थी और उस जगह पे धनछो खड़ की आवाज़ सुन के समझ गया की यह वही जगह है जहाँ से मैं कल वापिस मुड़ गया था |
कुछ और दूर चलने पे गुरूजी हर हर महादेव शिवशम्भु कहते हुए दौड़े और डाक्टर साहिबा जी भी उनसे आगे निकलने की कोशिश में दौड़ीं | जब तक मुझे कुछ समझ आता मुझे भी सामने पहाड़ की ओट से धीरे धीरे सामने आते चम्बा कैलाश के दर्शन हो गए | वो दोनों पहले दर्शन करने की होड़ में भागे थे |

पहाड़ों की ओट से सामने आता " द ग्रेट चम्बा कैलाश "

कुछ ही समय बाद हम गौरीकुंड पहुँच गए | वहां गुरूजी ने हमें कमल कुंड और कुगति से आने वाले परिक्रमा मार्ग के बारे में जानकारी दी, जिसका उन्हें अच्छा खासा अनुभव था  |
गौरीकुंड में उगे हुए फूलों ने स्वत: ही हमें आकर्षित कर लिया | कल इन्हीं फूलों से प्रेरणा पा कर मैं ऊपर तक चढ़ गया था | डॉक्टर साहिबा ने वहां उगे सभी फूलों के नाम उँगलियों पे गिना दिए | कौनसा फूल कितनी ऊंचाई और किस परिवेश में उगता है यह जानकारी भी दी |
खैर फूलों को अलविदा कह के हमने चढ़ना जरी रखा | चौधरी साहब सबसे आगे चल रहे थे उनके पीछे शुभम जी और फिर गुरूजी और उनकी पत्नी और आखिर में मैं |
तीनो आगे चले गए , गुरूजी और मैं पीछे रह गए | इक्तिफाक कहिये या पत्थर की समतल सतह का सम्मोहन; गुरूजी रेस्ट करने को उसी पत्थर पे बैठ गए जिसपे पिछले कल मैं घुटनो में सर दे के बैठ गया था | खैर वो जल्दी ही उठ खड़े हुए, मेरी तरह पौना घंटा नहीं बैठे | लेकिन उसके बाद उन्होंने सीधे पहाड़ चढ़ना शुरू कर दिया | मैं पीछे पीछे नाक की सेध वाली कहानी याद करता हुआ चलता रहा |
ऊपर पहुँच कर सबको अपनी अपनी मेहनत का फल मिल गया | 8:30 बजे हम मणिमहेश के दरबार में अपनी हाज़री लगा चुके थे |
शुभम जी और मैं सुंदरसी से ही नहाने का प्रोग्राम बना के आये थे|भोलेनाथ का नाम ले के दोनों ने बारी बारी डुबकी लगा दी|गुरूजी ने भी डुबकी लगाई और डॉक्टर साहिबा जी ने 3 बार दण्डवत प्रणाम करके अपनी यात्रा सफल की | पूजापाठ और परिक्रमा करने के बाद हम सामने के ऊँचे टीले पे चढ़ गए | कुछ देर फोटो खींचने के बाद नीचे टेंट में चाय पीने आ गए  |


पहाड़ी से लिया गया चित्र


सामने चम्बा कैलाश , दायीं (right) ओर मंदिर और बाईं (left) ओर कैंप तथा दुकाने और मध्य में पवित्र मणिमहेश डल झील |
अब बारी नीचे उतरने की थी |11 बजे नीचे उतरना शुरू किया |
सबने बांस के डंडे ले लिए और नीचे उतरना शुरू कर दिया | मणिमहेश से गौरीकुंड और गौरीकुंड से सुंदरासी कब पहुँच गए पता ही नहीं चला |
लगभग 1 बजे सुंदरासी पहुंच के थोड़ी देर रेस्ट करके और चाय पीने के बाद हमने अपना सामान समेटा और नीचे धनछो की ओर चल पड़े |
सुंदरसी से धनछो मेरे लिए नया रास्ता था; कल तो मैं दूसरी तरफ से गया था |
रास्ते के बीच में एक जगह आई, जिसे शिवजी का घराट (पनचक्की) कहते हैं | पहाड़ के इर्द गिर्द हवा घूमती हुई इस तरह की आवाज़ करती है कि मनो घराट (पनचक्की) चल रहा हो  | उसी के नीचे डेरा जमाए बैठे थे बाबा जी | बाबा जी सर्दियों के मौसम में भी बर्फ से ढके मणिमहेश के पहाड़ में बनी एक गुफा में तपस्या करने के लिए सिद्ध माने जाते हैं | गुरूजी को तो उन्होंने देखते ही पहचान लिया | बाबा जी से आज्ञा लेकर हम धनछो कि ओर चल पड़े | कुछ ही समय बाद धनछो पहुंचे और वहां से हड़सर के लिए नीचे उतरने लगे |
धनछो से हड़सर तक कि उतराई उतरना मुश्किल था | घुटनों पर ज़्यदा ही दवाब पड़ रहा था | कभी कभी तो लगता कि बस अब घुटना टूट के अलग हो जाएगा |
हमारा तो बुरा हाल हो रहा था बस एक शुभम जी ही थे जो सुंदरासी से लीड करते हुए ऐसे उतर रहे थे मानो उनके लिए यह पथरीला चट्टानों भरा रास्ता नेशनल हाईवे हो | उनकी महीना भर पहले से शुरू हुई यात्रा की तैयारी रंग ला रही थीं | वो रोज चंडीगढ़ के 26 सेक्टर से भागते हुए 12 सेक्टर में मेरे कॉलेज तक आते थे| भागते हुए वो सबसे पहले हड़सर पहुँच गए | हम सब लगभग 4:30 बजे हड़सर पहुँच गए |
हमरी किस्मत अच्छी थी ; जैसे ही हम हड़सर पहुंचे भरमौर के लिए गाड़ी मिल गई |
करीब 5 बजे हम भरमौर पहुंचे | भरमौर पहुँचते ही हम होटल भरमौर व्यू में रुके और नितिन जी और अतुल जी ने हमारे लिए स्पेशल खाना बनवा दिया |
खाना खाने के बाद शरीर में फिर से नयी जान आ गई | नितिन जी और अतुल जी से विदा लेकर हम चम्बा के लिए निकल पड़े | चम्बा में फिर से आदित्य जी के पास डेरा जमा दिया | इस बार भी श्रीमान आदित्य जी ने हमारे पहुँचने से पूर्व ही खाना बना दिया था | श्रीमान आदित्य जी जैसे सज्जन पुरुषों की घोर कमी है इस देश में, तभी तो देश का यह हाल हो गया है|
रात श्रीमान आदित्य जी के पास बिताने के बाद सुबह गुरूजी कि गाडी से हम चम्बा से जसूर तक आये | जसूर से गुरूजी उनके ससुराल ज्वाली चले गए , शुभम जी और चौधरी जी पठानकोट की बस में बैठ गए और फिर पठानकोट से वापिस चंडीगढ़ चले गए |
मेरा वापिस चंडीगढ़ जाने का कोई मन नहीं था | मैं तो घर जाना चाहता था |
मैं जसूर से इंदौरा की बस में बैठ गया और अपने गांव इंदपुर में उतर गया; भला आम के मौसम में पेड़ों पे लगे मीठे आम छोड़ के चंडीगढ़ की चिक-चिक चां-चां में सर खपाने कौन जाए |
     
 16 जून रात 11:30 बजे चंडीगढ़ से शुरू हुई मणिमहेश यात्रा 20 जून को दोपहर 1 बजे घर (इंदपुर, इंदौरा)  पहुँच के ख़त्म हुई |

इस यात्रा का पिछला भाग यहाँ पढ़ें

Sunday 3 July 2016

"मणिमहेश" - "द चम्बा कैलाश यात्रा" भाग-1

प्र०:- पाई बड़े दिनां दे दुसे नई ?
कुथु गयो थे ? 
(भाई बड़े दिनों से दिखाई नहीं दिए कहाँ गए थे )
उ०:- पाड़ | (पहाड़)
प्र०:- पाड़ बोले ताँ क्या ? (पहाड़; क्या मतलब)
उ०:- भरमौर |
प्र०:- कजो गयो थे ? (क्यों गए थे )
उ०:- जातरा की जांदे आसां हर साल मणिमहेश | (मणिमहेश यात्रा करने हम हर साल जाते हैं )
मेरे गांव इंदपुर में गद्दी भाइयों की परमानेंट सेटलमेंट है | सर्दियों में अक्सर इनके शरीक (रिश्तेदार) भेड़ बकरियों के साथ इंदपुर इंदौरा क्षेत्र में डेरा जमाते हैं |
ऊपर लिखी बातचीत एक परमानेंट सेटल्ड गद्दी दोस्त और मेरे बीच कि है; जो की अगस्त के महीने में गायब हो गया था | खैर बात तो बहुत पुरानी है लेकिन जब गुरूजी द्वारा मणिमहेश जाने कि इच्छा जाहिर कि गई तो मुझे यह वार्तालाप याद आ गया |
16 जून को शाम शुभम जी का फ़ोन आया और उन्होंने बताया की सामान बाँध लो हम मणिमहेश चल रहे हैं | वैसे मणिमहेश के लिए निकलने का प्रोग्राम 17 जून का था लेकिन गुरुजी ने किसी कारणवश प्रोग्राम पुर्वस्थागित कर दिया | शुभम जी जो की 17 जून की टिकट पहले ही बुक करके बैठे थे ; प्रोग्राम पुर्वस्थागित होने के कारण टेंशन में आ गए | खैर सारे समीकरण जोड़ तोड़ के देख लेने के बाद मैंने शुभम जी और हमारे एक और दोस्त अमन (चौधरी साहब) को अपने घर (इंदपुर) चलने के लिए राज़ी कर लिया |
11:30 बजे हम चंडीगढ़ के सेक्टर के बस स्टैंड पे पहुंचे |12:40 बस चली और पूरे रास्ते हमें ड्राइवर के खौफनाक किस्से (शुभम जी के ब्लॉग पे विस्तार में पढ़ें ) सुनने के बाद नींद नहीं आई |
17 जून की सुबह 5:30 बजे हम सब मेरे घर पे थे | थोड़ा सोने के बाद करीब 11 बजे हम जसूर के लिए निकले | गुरूजी जो की मण्डी से आ रहे थे हमें द्रमण में मिलने वाले थे | वैसे मैं गुरूजी के संपर्क में था लेकिन फिर भी हम सब करीब 1:30 बजे द्रमण पहुँच गए | वैसे गुरूजी ने 3 बजे तक आने को कहा था लेकिन सब कुछ सही रहा (जैसा की पहाड़ी सफर में अक्सर नहीं होता) और हम समय से पूर्व पहुँच गए |
घर से लाये आम खाने और चाय पीने के बाद हम द्रमण चौंक पे बैठ गए | गुरूजी के आने के बाद हम सब उनकी कार में बैठ गए और पहाड़ी गाने सुनते हुए काँगड़ा जिले से चम्बा जिले की वादियों में दाखिल हुए |
खैर चम्बा पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर आया | गुरूजी चम्बा से भरमौर रात में नहीं जाना चाहते थे | गुरूजी ने भरमौर जाने की बजाय अपने अज़ीज़ मित्र श्रीमान आदित्य भरद्वाज जी के यहाँ रात बिताने का निर्णय लिया और यह तय हुआ की सुबह वहां से लोकल गाड़ी करके भरमौर पहुंचेंगे | हम सब उनसे सहमत थे |

NHPC में कार्यरत श्रीमान आदित्य भारद्वाज जी तो जैसे इस कलयुग में सतयुग के अवतार हैं | हमारे पहुँचने से पहले ही हमारे लिए स्वादिष्ट खाना बना चुके थे | भोजन करने के उपरांत हमें चम्बे का चुगान दिखाने ले गए; वहां पहुँचते ही आइसक्रीम खिला दी | उनका अतिथि सेवाभाव तो उत्कृष्ठ, उच्च कोटी का है | सुबह चम्बा से भरमौर जाने के लिए गाड़ी का प्रबंध भी कर दिया | बिना बोले ही उन्होंने हमारी खूब सेवा की और हमारी सारी परेशानियों का हल कर दिया |
अगर पूरे भारतवर्ष में ऐसे लोग रहें तो भारतवर्ष में सत्य, अहिंसा और धर्म का डेरा फिर से लग  जाए |

सुबह श्रीमान आदित्य जी से आज्ञा लेकर हम 6:15 बजे भरमौर के लिए निकले |8:30 बजे भरमौर पहुंचे और गुरूजी ने फिर से अपने एक और मित्र नितिन जी के होटल भरमौर व्यू में हमें ठहरा दिया | नितिन जी और उनके बड़े भाई अतुल जी ने भी हमारा खूब सेवा सत्कार किया | उनसे बातचीत करके पता चला की वो छतरोली गांव (जसूर के पास ) से हैं | मेरी दो बहनों के ससुराल भी वहीँ हैं तो मैंने भी उनसे जान पहचान निकल ली |
खैर बातों बातों में और नाश्ता करते करते 10:30 बज गए | नितिन जी ने भरमौर से हड़सर जाने के लिए गाड़ी का प्रबंध कर दिया और हम 11 बजे हड़सर के लिए निकल गए |
हड़सर से पैदल यात्रा 11:40 बजे शुरू हुई |हम तीनों के दिमाग में यही चल रहा था की :


आज हम पहाड़ लाँघेंगे

उस पार की दुनिया देखेंगे !

आज हम पहाड़ लाँघॆंगे

उस पार की हलचल सुनेंगे !

आज हम पहाड़ लाँघेंगे

उस पार की हवाएं सूँघेंगे ! 

आज हम पहाड़ लाँघेंगे

उस पार की धूप तापेंगे !

 -अजेय जी की कविता से 

धनछौ खड़ के साथ साथ यात्रा का रास्ता दाईं ओर किनारे किनारे चल रहा था | खड़ की आवाज और चलते क़दमों की आहट ताल में ताल मिला रही थी | शुरुआत में ही गुरूजी ने मुझे आगे चलने का आदेश दिया ताकि बाकि भी सही रफ़्तार से चलते रहें | अमन जी सबसे आगे चल रहे थे; जब मैंने उन्हें ओवरटेक किया तो उन्होंने पानी माँगा और मैंने अपनी बोतल उनको पकड़ा दी |
उफनती धनछौ खड़ पे बने लकड़ी और लोहे के गर्डर के काम चलाऊ पुल से खड़ को पार करते करते एडवेंचर का कीड़ा डर के मारे दिमाग के किसी कोने में दुबक कर बैठ गया था |
मैं आगे चलता चलता बहुत ही आगे निकल आया | पहला पड़ाव करीब 7 km बाद धनछौ कैंपसाइट आया | धनछौ पहुँचने तक मैं पूरा वार्मडअप हो चूका था | इसलिए चलते रहने का निश्चय किया |


धनछौ कैंपसाइट और दोनों ओर के रास्ते
थोड़ी और दूर जाने पर दो रास्ते अलग हो गए | एक रास्ता फिर से एक पुल से होते हुए खड़ के दूसरी ओर जाता था जिस ओर शुरआत से चल रहे थे और दूसरा रास्ता पहाड़ों की ओर | एक दूकान वाले से पूछा की सही और छोटा रास्ता कौनसा है | उसने जवाब दिया दोनों बराबर हैं 6 km  |
मैं पहली बार जा रहा था तो सही रास्ता नहीं जनता था |
विनाशकाले: विपरीत बुद्धि:
दुकान वाले का भरोसा करके मैंने सोचा 6 km ही तो है | जहाँ 7 km चढ़ गया वहां 6 km भी चढ़ ही जाऊंगा चाहे खड़ा पहाड़ ही क्यों न आ जाए | यह सोच हावी होने की देर ही थी कि एडवेंचर का कीड़ा फिर से निकल आया और मैं फिर से एक काम चलाऊ पुल पार करके धनछौ खड़ के उसी ओर चलने लगा जिस ओर से शुरुआत की थी |
रास्ता अब और पथरीला होता जा रहा था | मुझे एहसास हो गया था की मैं गलत रास्ते पे चल पड़ा हूँ | खैर दूसरा रास्ता भी पहाड़ी की इस ओर से साफ़ दिख रहा था; तो यह सोच के की जब गुरूजी और साथी उस ओर चलेंगे तो आसानी से दिख जाएंगे, मैं चलता रहा |

खैर थोड़ी दूर जा के फिर से दो रास्ते अलग हो गए ; एक धनछौ खड़ की तरफ नीचे की ओर और दूसरा ऊपर की तरफ | मैं खुश था सोचा की अब नीचे जा के दूसरी तरफ चला जाऊंगा; भूल सुधार के सही रास्ते पे और गुरूजी का इंतजार करूँगा | सोचा धनछौ खड़, जो ऊपर से छोटा सा नाला प्रतीत हो रहीं थी को; अगर पुल न हुआ तो छलांग मार कर पार कर लूंगा | मेरे इस ओवरकॉन्फिडेंस को कुदरत ने मसल के रख दिया |
मेरी ख़ुशी नीचे जाते ही खत्म हो गई | खड़ के दोनों और पुल के पिलर तो थे लेकिन पुल नहीं था |


वो स्थान जहां पुल होना चाहिए था

 और तो और जिस लोहे के गर्डर से पुल बनाया जाना था वह भी दूसरी ओर पड़ा था | लेकिन मैं भी पार करने के इरादे से ही नीचे आया था | मैंने देखा की ऊपर की ओर बर्फ जमी है और खड़ उसके नीचे से बह रही है | पहले पहाड़ के ऊपर चढ़के चट्टानों को बाईपास करते हुए फिर नीचे आकर मैं बर्फ तक तो पहुँच गया लेकिन बर्फ बहुत ढीली थी | ऊपर से पार करने लायक तो बिलकुल नहीं | धनछौ खड़ की आवाज़ भी डरा रही थी मनो भाग जाने को कह रही हो |


ढीली बर्फ जिसके नीचे से पानी बह रहा है |

मैं फिर से ऊपर चढ़ गया और पहाड़ के ऊपर वाले रास्ते पे ही बढ़ता रहा |
पहाड़ कि दूसरी तरफ गुरूजी और साथियों के नज़र आने कि हसरत लिए, मैँ चलता रहा | कभी कभी दिमाग में यह ख्याल आ जाता कि फिर से नीचे जा के धनछौ खड़ पार करने की कोशिश करूँ लेकिन सबक तो मिल चुका था |
हवा में ऊंचाई के कारण आई ऑक्सीजन कि कमी महसूस हो रही थी और थकान भी होने लगी थी | थोड़ी और आगे चलने पे ग्लेशियर से आते पानी का सोता मिला | पानी पीने के लिए हाथ बढ़ाया तो ठण्ड के मारे उँगलियाँ जमने लगीं | तभी एक जुगाड़ दिमाग में आया और मैंने अपने पास रखी एक स्ट्रॉ से पानी पिया |


पानी पीने का जुगाड़ |
आधा घंटा रेस्ट करने के बाद फिर से चल पड़ा | कुछ दूर और आगे बढ़ने पर दो लोग मिले | मैं कुछ बोलता उससे पहले उन्होंने ही पूछ लिया, "अकेले हो" | मैंने हाँ मैं सर हिला दिया | बातचीत करने पर पता चला कि यह लोग खच्चर चलाते हैं और जिस रूट पे मैं चल रहा था वो खच्च्रों के लिए रिज़र्व  है | वो तो इस रास्ते का हाल जानने के लिए मुआयना करने आये थे | मुझे आगे गिरते हुए ढीले पथरों से सावधान रहने के लिए सचेत करके वो अपने रास्ते चले गए |
जिन पथरों के लिए उन्होंने मुझे सचेत किया था उनका नजारा तो डरावना था |

ढ़ीले पत्थरों का इलाका जो की कुछ ही देर पहले अस्थिर होके गिरे थे | 

पत्थरों को पार करके मैं बर्फ से ढके पहाड़ों में पहुंचा | रास्ता ढूँढना कठिन था लेकिन रास्ते में मिले उन दो व्यक्तियों के पदचिन्हों पे पाओं रख रख के बर्फीला इलाका पार किया |


बर्फीले इलाके के बाद तो जैसे जन्नत थी |
फूलों से ढका हुआ पहाड़ का हिस्सा मानो सर्दियों से जग कर उठ बैठा हो | पत्थरों में उगे फूल देख कर इतनी प्रेरणा तो मिली कि अगर पत्थर पे फूल उग सकते हैं तो मैं तो जीता जागता इंसान हूँ, "मैं क्या नहीं कर सकता" |





"गौरी कुंड" फूलों की वादियां और कैंपसाइट |

फूलों कि वादी पार करने के बाद मैं उस स्थान पे आ पहुंचा जहाँ धनछो खड़ के दोनों ओर के दोनों रास्ते मिलते हैं,"गौरी कुंड" | यह इलाका मैदानी था |  कुछ और दूर जाने के बाद ऊपर एक पहाड़ी पे टेंट और झंडे लगे दिख रहे थे | उनको देखते ही मैं समझ गया कि मंजिल यही है | लेकिन ऑक्सीजन कि कमी का मारा मैं ; मुझे वहां तक पहुंचना मुश्किल ही लग रहा था |
थोड़ी देर चलता और बहुत देर घुटनों में सर दे के बैठ जाता | ऐसे तो मैं रात तक नहीं पहुँचूँगा यही सोचते सोचते एक तरकीब दिमाग में आई; अगर हवा में ऑक्सीजन कम है तो साँस लेने कि गति को बढ़ा कर उस कमी कि कुछ तो भरपाई होगी | पहले जहाँ में 2 sec में एक बार सांस ले रहा था, वहीँ अब मैंने 3 बार साँस लेना शुरू कर दिया |
खैर इसका फायदा भी कुछ ही देर रहता और मैं फिर थक जाता और बैठ जाता | अब रेस्ट के समय भी तेज साँस लेने का सिलसिला जरी रखा | पहाड़ों पे बनी टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डी को छोड़ अब मैं सीधे नाक कि सेध में ऊपर लगे टेंट कि और बढ़ने लगा | इससे थकान तो हो रही थी लेकिन थकने तक उतना ऊपर तो चढ़ ही जाता जितना दूर पगडण्डी पर चल रहा था |
"नाक कि सेध में चलना", यह वाक्य किसी कहानी में सुना था पर शायद ऑक्सीजन कि कमी के कारण वो कहानी याद नहीं आ रही थी | कहानी याद करने के चक्कर ने चलो मेरे दिमाग को तो उलझाए रखा और जैसे तैसे में ऊपर पहुँच गया |
ऊपर गिनती के ही लोग थे | टेंट पार करके जब झील तक पहुंचा तो वो नज़ारा तो दर्शनीय था; मानो स्वर्ग धरती पे आ गया हो |
 ऊपर ठण्ड काफी थी और शाम के 5 भी बज चुके थे | कुछ देर तो वहां ऐसे ही बैठा रहा और तभी जेहन में गुरुदेव टैगोर जी कि कविता आ गयी जो मेरे हालातों पे बिलकुल ठीक बैठती थी |
बादल पर बादल छा गए, अँधेरा घिर आया
ऐसे में मुझे अपने द्वार के पास,
अकेले क्यों बैठा दिया?
तरह-तरह के काम-काज से भरे दिनों में मैं
विविध लोगों में फंसा रहता हूँ |
आज तो मुझे बस तेरा ही आसरा है |
ऐसे में मुझे अपने द्वार के पास
अकेले क्यों बैठा दिया ?
तूने यदि आज भी अपने दर्शन न दिए.
मेरी उपेक्षा कर दी , तो यह बरसात की बेला कैसे कटेगी !
दूर तक अपलक दृष्टि बिछाये, मैं उदास बैठा हूँ |
मेरा मन हवा के साथ व्याकुल हाहाकार करता भटक रहा है |
मुझे द्वार के पास अकेले क्यों बैठा दिया?

मैंने जूते उतारे और मंदिर में माथा टेका | नंगे पाओं परिक्रमा कि और जब वापिस अपने सामान और जूते के पास पहुंचा तो मानो सवयं शिव शंभू ने मन में आ के कहा हो, "भक्त स्नान नहीं करोगे" और मैं स्नान करने के लिए उठ खड़ा हुआ |
झील की परिक्रमा
झील में तैरती बर्फ देख कर पानी में उतरना तो दुःस्वप्न के सामान लग रहा था पर मैं भी मन बना चुका था कि बिना नहाए नहीं जाऊंगा | कपडे उतारे और पानी में जा के खड़ा हो गया | थोड़ा पानी ले के शरीर पे मल लिया और शिवशंकर का नाम लेके डुबकी लगा दी |
ठन्डे पानी ने तो जैसे थकान को खींच लिया था या फिर कोई दैवीय शक्ति थी उस पानी में | नहाने के बाद फिर से एकदम तरोताज़ा हो के गुरु जी कि याद आई | इतनी देर जिस चिंता को मैं दबता रहा अब वो हावी हो रही थी |


 मणिमहेश कैलाश
अगले भाग में पढ़ें गुरूजी और साथियों की खोज और ग्लेशियर पार करने का रोमांचक किस्सा और आपको उन शख्सियत से भी मिलवाएंगे जिनका अभी तक मैंने जिक्र ही नहीं किया  |

इस यात्रा का अगला भाग यहाँ पढ़ें